
कर्म ही पूजा है निबंध | Work is Worship Essay in Hindi
मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है. इसकी विभिन्न विशेषताएँ देखकर ईश्वर को भी गर्व अनुभव हो रहा होगा. सक्षम, सुन्दर एवं विचारशील मनुष्य को देखकर यह सहज अनुमान किया जा सकता है तथा कहा जा सकता है कि “जिसकी रचना इतनी सुन्दर, वो कितना सुन्दर होगा.” मानव का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है-इसकी कर्मशीलता. कहा भी गया है कि-
“सकल पदारथ है जग मांही ।
करमहीन नर पावत नाही ।”
कर्म मानव जीवन का बीजमंत्र है. सृष्टि की प्रत्येक सफलता का द्वार यहीं से खुलता है. समस्त मानव-जीवन को सार रूप में मात्र एक शब्द से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है और वह है-‘कर्म’.
माथे से बहे पसीने में करोड़ों गंगाओं का पूण्य समाया होता है, श्रम से उत्पन्न तीन विश्वासों में अखिल ब्रह्मांड की जीवन-गति समायी हुई है. मनुष्य इसलिए महान् है, क्योंकि कर्म करने में उसकी श्रद्धा है.
श्रीमद्भगवद्गीता में ‘योगः कर्मसु कौशलम्’ अर्थात् कर्म में कुशलता ही योग है, कहकर जीवन में कर्म का महत्त्व ही नहीं बताया, बल्कि प्रकारान्तर से कर्म की आराधना और साधना भी प्रतिपादित कर दी है.
कर्म : जीवन का पर्याय
कर्म जीव का स्वभाव भी है और जीवन एवं जीवंतता का लक्षण भी है, कोई भी जीव कर्म के बिना रह ही नहीं सकता है
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।।
कार्यते दृह्मवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुणैः। (श्रीमद्भगवद्गीता 3/5)
अर्थात् कोई भी किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता है, निःसंदेह सब ही प्रकृति में उत्पन्न हुए गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करते हैं. स्वयं परमात्मा को भी कर्म करते रहना पड़ता है, यथा
न ये पार्थ, अस्ति, कर्त्तव्यम्, त्रिषु लोकेषु किंचन ।
न, अनवाप्तम् अवाप्तव्यं वर्ते एव, च, कर्मणि ॥ (श्रीमद्भगवद्गीता 3/22)
अर्थात् हे अर्जुन ! यद्यपि मुझे तीनों लोकों में कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है तथा प्राप्त होने योग्य कोई भी वस्तु अप्राप्त नहीं है, तथापि मैं कर्म में ही रत रहता हूँ.
वस्तुतः कर्म परमात्मा से ही उत्पन्न हुआ है और वह परमात्मा का ही स्वरूप है—’कर्म ब्रह्मोद्भवं ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्’.
(श्रीमद्भगवद्गीता 3/15)
अर्थात् कर्म को तू वेद से उत्पन्न हुआ जान और वेद अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ है.
कर्म का महत्त्व
कर्म करने से व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न होता है एवं आनन्द की प्राप्ति होती है. इतिहास साक्षी है कि जीवन में सफल होने वाले, महान् बनने वाले व्यक्ति कठिन परिश्रमशील व्यक्ति थे. कर्म करके ही, अपने काम को अच्छी तरह करके ही, हम जीवन में सफल हो सकते हैं तथा सुख एवं मानवता का वरण कर सकते हैं, कहावत भी है कि दुनिया को काम प्यारा होता है, चाम नहीं’. किसी के रूप-रंग पर कोई कब तक रीझेगा ? किसी के प्रति अपने मधुर सम्बन्धों का निर्वाह कोई अकारण अथवा देखने भर को कब तक कर सकेगा ? कर्मशीलता का जीवन दर्शन ही सच्चा जीवन-दर्शन है. आराधना, साधना, तपस्या आदि कर्म के ही विविध रूप हैं.
व्यक्तियों की श्रेणियाँ
कर्म की दृष्टि में व्यक्तियों को सामान्यतः तीन श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है, यथा-
(i) वे व्यक्ति, जो मार्ग में आने वाली कठिनाइयों के भय से कोई काम आरम्भ करते ही नहीं हैं, उन्हें असफलता की आशंका सदैव सताती रहती है और वे किसी भी कार्य को हाथ में लेते हुए भयभीत होते हैं. इस श्रेणी के व्यक्ति जीवन में न कुछ करते हैं और न कोई सफलता ही प्राप्त कर पाते हैं. ये लोग कदाचित् ही यह जान पाते हों कि कर्मशील जीवन का आनन्द क्या होता है ? एक वाक्य में वे असफलता का जीवन जीते हैं..
(ii) वे व्यक्ति, जो काम को शुरू तो कर देते हैं, परन्तु जरा-सी भी कठिनाई अथवा बाधा उपस्थित हो जाने पर हाथ-पैर डाल देते हैं और हताश होकर बैठ जाते हैं. इनमें न तो कठिनाइयों का सामना करने का साहस होता है और न आगे बढ़ते रहने के लिए अपेक्षित दृढ़ संकल्प ही होता है. इस श्रेणी के लोग जीवन में बहुत कम सफल होते हैं. ये निराशा का जीवन जीते हैं.
(iii) वे व्यक्ति, जिनकी इच्छा शक्ति प्रबल होती है और जो विघ्न-बाधाओं की कल्पना करके न तो सशंकित होते हैं और न उनके उपस्थित होने पर भयभीत ही होते हैं. वे पूरी आशा एवं पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने काम में लगे रहते हैं और विघ्न-बाधाओं को उसी प्रकार पार करते रहते हैं, जिस प्रकार एक पर्वतारोही अपनी कुदाल द्वारा अपना मार्ग प्रशस्त करता चलता है अथवा कोई श्रमिक अपने फावड़े द्वारा अपने मार्ग के झाड़-झंखड़ों को साफ करता चलता है. ये लोग अनवरत श्रम करते हुए अपने मार्ग पर निरन्तर अग्रसर होते रहते हैं और अपने लक्ष्य को प्राप्त करके सफलता का वरण करते हैं. इसी श्रेणी के व्यक्ति महान् बन सके हैं और संसार को कुछ दे सके हैं.
कहावत है कि प्यासा कुएँ के पास जाता है, कुआँ प्यासे के पास नहीं आता है. जो व्यक्ति लक्ष्य अथवा उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ेगा ही नहीं, वह उस तक कैसे पहुँच पाएगा ? प्रयत्न न करने वाला, कर्म से विरत रहने वाला व्यक्ति सदैव हीनता भाव से ग्रसित बना हुआ उपेक्षा एवं आत्मग्लानि का जीवन भोगता रहता है. महाभारतकार ने कहा भी है कि पुरुषार्थी व्यक्ति सर्वत्र भाग्य के अनुसार प्रतिष्ठा पाता है, परन्तु जो अकर्मण्य है,
वह भ्रष्ट होकर घाव पर नमक छिड़कने के समान असह्य दुःख भोगता है. डिसरैली का यह कथन कितना सार्थक है कि “कर्म सदैव सुख न ला सके, परन्तु कर्म के बिना सुख प्राप्त नहीं हो पाता है.” हमारे विचार से कर्म द्वारा ही व्यक्ति अपने को अभिव्यक्त कर सकता है. कर्म करके ही वह अपनी क्षमता को व्यक्त भी करता है और अपनी क्षमताओं का सुख भी भोग सकता है, आचार्य विनोबा भावे ने इस सन्दर्भ में ठीक ही कहा है कि “कर्म वह प्रार्थना है जो हमें हमारा स्वरूप दिखा देती है.”
अंग्रेजी के प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर द्वारा प्रणीत प्रसिद्ध नाटक ‘मर्चेण्ट ऑफ वेनिस’ में ड्यूक के कोर्ट में छद्म वेशधारी पोर्शिया का यह कथन मनन करने योग्य है कि कर्म द्वारा प्राप्त सन्तोष सबसे बड़ा पुरस्कार होता है. आधुनिक काल में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की अग्रदूत में डॉ. श्रीमती ऐनीबेसेन्ट ने भी लिखा है कि “Reward of good work is more work.” अर्थात् अच्छे कार्य का पुरस्कार अधिक कार्य की प्राप्ति है.
कर्म द्वारा ही भाग्य का निर्माण होता है और भाग्य के अनुसार ही प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सुख दुःख भोगता है, जिसको भाग्य का निर्माण करना है, वह भाग्य विधायक होकर श्रेष्ठ कर्म करेगा ही. कर्म किए जाओ—भाग्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है. अथर्ववेद कहता है कि “मेरे दाएँ हाथ में कर्म है तथा बाएँ हाथ में जय.”
कर्म का स्वरूप
कर्म कैसा हो, अथवा हमें किस प्रकार का कर्म करना चाहिए? इस बारे में विभिन्न मनीषियों ने हमारा मार्गदर्शन किया है, हम ज्ञानयुक्त कर्म करें, शास्त्रविहित कर्म करें, आगा पीछा सोचकर कर्म करें, हम निष्काम कर्म करें, हम ईश्वर के प्रति समर्पण भाव से कर्म करें आदि. सबका मूल मंत्र यह है कि हम कर्म के फल की ओर जितना ही कम ध्यान देंगे, उतने ही अधिक मनोयोगपूर्वक हम अपना काम कर सकेंगे. कर्म-फल की ओर आसक्त व्यक्ति की दशा उस बालक के समान होती है, जो बीज में अंकुर प्रकट होने के उपरान्त अगले ही दिन उसको उखाड़कर देखने लगता है कि यह कितना बड़ा हो गया है. उचित यही है कि हम अपना काम पूरी शक्ति, सामर्थ्य एवं निष्ठा के साथ करते रहें, समय आने पर वह फलदायक होगा ही. समय से पहले न कोई वृक्ष फूलता-फलता है और न कोई काम ही सिद्ध होता है. कवि रहीम का यह कथन द्रष्टव्य है
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, रितु आए फल होय ।
कर्म वस्तुतः शिक्षा और शिक्षक का समन्वित रूप है. जीवन की प्रयोगशाला में कर्म रूपी प्रयोग करने के लिए हमें यह जीवन प्राप्त हुआ है. हम कर्म करें, उससे शिक्षा ग्रहण करें और उस शिक्षा का उपयोग करते हुए अगले कर्म से प्रवृत्त हों. हमारे विचार से अच्छे और सच्चे कर्म की यही विधि भी है और प्रक्रिया भी है. वह व्यक्ति बुद्धिमान माना जाता है या बन जाता है, जो अपनी गलतियों से शिक्षा लेकर अपने को सुधारता रहता है, जो व्यक्ति अपनी गलतियों से कोई सबक नहीं लेता है और एक ही गलती को दोहराता है, वह मूर्ख कहा जाता है. प्रश्न यह उठता है कि जो व्यक्ति कोई गलती ही नहीं करता है, उसको क्या कहा जाता है अथवा उसको क्या कहा जाना चाहिए? सीधा-सा उत्तर है कि वह जड़ बना रहता है, क्योंकि वह जीवन में कुछ करता ही नहीं है. अकर्मण्य और अचल अथवा निष्क्रिय जड़ पदार्थ में कोई अन्तर नहीं होता है.
कर्म की आवश्यकता
कर्म की पूर्णता एवं सफलता के लिए यह आवश्यक है कि कर्म पूर्ण मनोयोग के साथ किया जाए. यह तभी सम्भव है जब कर्म के फल पर दृष्टि न रखी जाए अथवा उसका चिन्तन न किया जाए. इस प्रकार का कर्म फल की आसक्ति रहित कर्म है. निःस्वार्थ कर्म वही हो सकता है, जो सेवा भाव से किया जाता है. सेवा में किसी प्रकार के प्रतिदान की आशा नहीं रहती है, जिसके प्रति करुणा अथवा सेवा की जाती है, उससे बदले में सेवा या करुणा की आशा नहीं की जाती है और यदि ऐसा किया जाता है, तो वह सेवा नहीं रह जाती है, वह व्यापार या व्यवसाय के क्षेत्र की वस्तु बन जाती है. जो कर्म शुद्ध सेवा-भाव से किया जाता है, उसे हम सहज ही भगवान् के नाम किया जाने वाला कर्म कह सकते हैं. नेकी कर दरिया में डालना इसी को कहते हैं. दरिया सागर में मिलता है, उसमें पड़ी हुई वस्तु अनन्त सागर को प्राप्त होती है. अतः दरिया में डाली हुई नेकी, यानी सेवा भावी कार्य अनन्त सागर रूपी परमात्मा को प्राप्त होता है. इसी को लक्ष्य करके सेवा को भक्ति का प्रमुख लक्षण कहा गया है. वैष्णव लोग प्रभु की पूजा को प्रभु-सेवा ही कहते हैं, अनन्य भक्त वह है जो चराचर जगत को प्रभु का स्वरूप मानता है और उसकी सेवा करता है, यथा-
सो अनन्य गति जाके, मति न टरहि हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर, रूप स्वामि भगवंत ॥ (किष्किंधाकांड, रामचरितमानस)
सच्चे भक्त भक्ति का फल शक्ति ही मानते हैं, क्योंकि सेवा जीवन और जगत् दोनों के साथ कर्ता के कर्त्तव्य का निर्वाह करा देती है. सबकी भलाई करने वाला स्वयं भी सबके अन्तर्गत आ जाता है. लोक-कल्याण करने वाला लोक का अंग होने के कारण स्वयं भी कल्याण का भागी बन जाता है. जो फूलों की खेती करता है, उसके पथ पर स्वयं प्रकृति फूल बिछा देती है, जो दूसरों के लगाने के लिए मेंहदी पीसता है, उसके हाथों में मेंहदी अपने आप ही लग जाती है
यों रहीम सुख होत है, उपकारी के अंग ।
बाटन वारे के लगे, ज्यों मेंहदी को रंग ॥
कर्म से बढ़ कर कर्ता का स्मारक अन्य कुछ नहीं हो सकता है. कहा भी गया है कि काम करते-करते समाप्त हो जाना, पड़े-पड़े जंग खाने की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छा होता है.
महान् विभूतियों के जीवन से हमें महत्त्वपूर्ण शिक्षा मिलती है कि कठिन श्रम द्वारा सफलता का द्वार खुलता है. श्रमशील एवं कर्मठ व्यक्ति ‘जंगल में मंगल’ कर देते हैं तथा बंजर भूमि को लहलहाती खेती में बदल देते हैं. जिस राष्ट्र के निवासी कर्मठ नहीं होते हैं, वह राष्ट्र गुलाम हो जाता है. इसके विपरीत जिस राष्ट्र के निवासी कर्मठ होते हैं, वह कभी गुलाम नहीं हो सकता. अपना कर्त्तव्यपालन न करने वाले व्यक्ति अकर्मण्य बन जाते हैं. वे दूसरों से तो अपमानित होते ही हैं, साथ-ही-साथ अपने जीवन में भी दुःखी बने रहते हैं. उनका जीवन निरर्थक बनकर रह जाता है. इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ‘कर्म’ के बिना मानव जीवन नितान्त सारहीन तथा व्यर्थ है.