
UPSC Essay topics previous years- भूमंडलीकरण और भारतीय भाषाएं
भूमंडलीकरण (ग्लोबलाइजेशन) ने दुनिया की तस्वीर को अस्थिर किया है। तमाम मौलिक चीजें, मौलिक नहीं रहीं। भूमंडलीकरण संपूर्ण विश्व को एक ग्राम में तब्दील करने की अवधारणा है। कोई सीमा नहीं, कोई सरहद नहीं, कोई दीवार नहीं। ऐसे में भाषा के वैविध्य पर भी असर पड़ा है। जाहिर है कि जब भाषा की विविधता पर ही असर पड़ा है तो भारतीय भाषाएं कैसे अछूती रहेंगी?
सकारात्मक रूप में लें तो कह सकते हैं कि अंग्रेजी की स्वीकार्यता और उसे जानने-समझने, उसका प्रयोग करने की जरूरत पहले से भी ज्यादा बढ़ी है, मगर हिन्दी समेत तमाम भारतीय भाषाएं अपनी जगह पर कायम हैं। भाषाएं इतनी आसानी से खत्म नहीं होतीं। वे शताब्दियों में एक लंबी प्रक्रिया के तहत विकसित होती हैं। भाषिक संस्कार हमारे रक्त में इस कदर घुले होते हैं कि उनकी जड़ों को हिला पाना कठिन होता है। किसी भाषा को बोलने वालों की संख्या घट सकती है, लेकिन वह भाषा किसी न किसी रूप में बरकरार होती है। करीब दो सौ सालों का साम्राज्यवादी शासन भी भारतीय भाषाओं को नष्ट नहीं कर सका। इस बात को ग्लोबलाइजेशन के झंडाबरदार भी समझते हैं। संभवतः यही वजह है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी बड़े पैमाने पर अपने उत्पादों के विज्ञापन न सिर्फ हिन्दी में तैयार करवा रही हैं, बल्कि उनमें क्षेत्रीय लहजा अपनाने पर जोर दे | रही हैं। फिर यह भी सच है कि भूमंडलीकरण ने संवाद के कई नए | रास्ते खोले हैं। इससे भाषा के मुद्रित स्वरूप पर जरूर आघात पहुंचा है, मगर कुल मिलाकर भाषा समृद्ध ही हुई है। बाजार ने अपनी जरूरतों को ध्यान में रखकर हिन्दी जैसी भाषा को ज्यादा संप्रेषणीय | बनाया है। इसने हिन्दी को नया लहजा दिया है, नए शब्द दिये हैं, | उसमें एक प्रवाह पैदा किया है। हिन्दी और गतिशील हुई है। इतना ही नहीं, हिन्दी और सरलता की ओर अग्रसर है। जटिलता कम हुई है। | इस कारण ‘विभिन्न विदेशी चैनल’ भी हिन्दी में ‘प्रचार’ दिखाने लगे हैं। फिर हमारी भारतीय भाषा के शब्दों को वैश्विक स्वीकृति मिल रही है। जैसे—इडली, डोसा, छोला-भटूरा, चटनी आदि शब्दों का विश्व के अंग्रेजी शब्दकोशों में सम्मिलित किया जाना एक प्रकार की स्वीकृति है, जो भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप है।
फिर भूमंडलीकरण के दौर में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जीवित रहने के लिए एक भाषा जरूरी है। एक भाषा इसलिए भी जरूरी हो गई है कि हम ऐसे समय में रह रहे हैं, जिसमें समस्याएं एक हो गई हैं, साझा हो गई हैं। जिन चीजों का लाभ ले पाने में हम संकट का अनुभव करने लगे थे, संचार की भाषा ने उससे मुक्ति दिलायी है।
लेकिन यह एक प्रकार का भ्रम ही है। सिक्के का दूसरा पहल हिलाकर रख देने वाला है। भूमंडलीकरण की लगातार तीव्र होती आंधी ने भारतीय भाषाओं की बुनियाद हिला दी है। हमारी बोलियां पीछे छूटती जा रही हैं। नई पीढ़ी भूमंडलीकरण के अनुरूप अपने को बदल रही है। वह बोली को इसके उपयुक्त नहीं मानती। इसलिए उसने बोलियों से दूरी बना ली है।
चूंकि भूमंडलीकरण एकरूपता का हिमायती है, संपूर्ण विश्व एक ग्राम है, तो स्वाभाविक है मानक भाषा एक होगी। जब मानक भाषा एक होगी तो जाहिर है वह अंग्रेजी ही होगी, हिन्दी तो हो ही नहीं सकती। जैसे एक राष्ट्र की भाषा के रूप में हमने हिन्दी को स्थापित किया, बोलियों को नहीं, वैसे ही विश्व की भाषा के रूप में अंग्रेजी स्थापित होगी, हिन्दी नहीं।
भले ही विश्व के तमाम विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई होती है, लेकिन वह अंग्रेजी माध्यम में होती है या मानकीकृत हिन्दी में होती है, बोलियों वाली हिन्दी में नहीं, मानकीकृत हिन्दी में।
वास्तव में ग्लोबलाइजेशन आंचलिकता, क्षेत्रीयता, स्थानीयता का धुर विरोधी है। ऐसे में देशज तत्वों पर संकट आना स्वाभाविक है। बोलियां भी देशज तत्व ही हैं। इसलिए सहज ही बोलियों पर खतरा है। बहुत संभव है बोलियां समाप्त हो जाएं। हाँ, यह समाप्ति धीरे-धीरे हो सकती है।
असल में भूमंडलीकरण ‘एक रास्ता’ लाता है। एक रास्ता, एक विश्व, एक व्यापार, एक संस्कृति, सब कुछ एक। ऐसे में देश भर में जो एक भाषा रहेगी, वह रहेगी, बाकी समाप्त हो जाएगी। जो भाषा व्यापार के काम आएगी वही चलेगी, बाकी नष्ट हो जाएंगी। फिर यह भी कि व्यापार की भाषा या बाजार की भाषा बनने के चक्कर में हिन्दी की मूल प्रकृति नष्ट होगी। वर्तमान फिल्मी ‘रिमिक्स’ गानों की तरह हिन्दी भी रिमिक्स हो जाएगी। तब यह तय कर पाना मुश्किल होगा कि क्या हिन्दी का अपना है और क्या गैर।
जो नई पीढ़ी ‘फंडा’ शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से करती है वह ‘लोक हंगामा’ की जगह ‘फोक हंगामा किया करती है। यह पीढ़ी किसी से ‘प्रेम’, ‘मोहब्बत’ नहीं करती किसी को ‘पटाती’ है। यह भूमंडलीकरण की परिणति है। विश्व स्तर पर जो नोबेल पुरस्कार दिया जाता है, उसके लिए भी उन्हीं कृतियों का चुनाव किया जाता है जो अंग्रेजी में हों या अन्य भाषा से अंग्रेजी में अनूदित हुई हों। इस तर्क से यदि हिन्दी की भी कोई कृति पुरस्कृत होगी तो अंग्रेजी में अनूदित कृति ही पुरस्कृत होगी, मूल हिन्दी की नहीं।
और जहां तक हिन्दी कृतियों के अनुवाद का प्रश्न है तो यह सर्वविदित है कि मानक हिन्दी की कृतियों का ही अपेक्षानुरूप अनुवाद नहीं हो रहा है तो बोलियों की कृति यथा-ब्रजभाषा और अवधी आदि की कृतियों का अनुवाद क्या होगा? फिर अनुवाद में भी अभिव्यक्ति की दिक्कतें हैं।
वास्तव में, मानव-व्यक्तित्व, अस्मिता और सांस्कृतिक बोध निज भाषा में ही व्यक्त होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि भूमंडलीकरण का प्रतिरोध भारतीय भाषाओं में रचे हुए साहित्य से ही संभव है।
भूमंडलीकरण के लिए तेलुगू में बहुप्रचलित शब्द है ‘प्रपंचीकरण’। सच पूछा जाय तो ‘ग्लोबलाइजेशन के लिए ‘वैश्वीकरण’ या ‘भूमंडलीकरण’ से ज्यादा सटीक शब्द ‘प्रपंचीकरण’ ही है क्योंकि वैश्वीकरण कुछ हद तक षड्यंत्र भी है और प्रपंच भी। स्व. प्रभाष जोशी ने हिन्दी में ‘प्रपंचीकरण’ शब्द के प्रयोग करने की जोरदार वकालत करते हुए कहा था कि ‘इस शब्द का प्रयोग हिन्दी में आवश्यक है ताकि इस प्रक्रिया में इसके शिकार गरीबों के साथ जो छल-कपट होता है, वे उसे समझें और उसके खिलाफ तनकर खड़े हो जाएं, बेलिंस्की ने लिखा है—’जब आदमी पूर्णतया झूठ का व्यापार करने लगता है तो समझदारी और प्रतिभा उससे विदा हो जाती है।’
बकौल स्व. राजेन्द्र यादव ‘भूमंडलीकरण और बाजारवाद आंदोलन नहीं, विदेशी आक्रमण हैं और वे हमारी सहमति से अपने संपन्न भविष्य के सपनों के चोर दरवाजों के सहारे हमारे मनोजगत में घुसपैठ कर रहा है… आवारा पूंजी की गिरफ्त में होने से दूसरी मानवीय चिंताओं या समाज कल्याण जैसा कोई फितूर हमें परेशान नहीं करता।’
वास्तव में पश्चिम ने एक ऐसे समाज को जन्म दिया है जो एक मशीन के सदृश है। वह मनुष्यों को इस समाज के अंदर रहने तथा मशीन के नियमों को ग्रहण करने को बाध्य करता है। जब मनुष्य अच्छी तरह मशीन से अपने को मिला देंगे तब धरती पर मनुष्य रह ही न जाएंगे। ऐसे में देशज भाषा में वार्तालाप करने वालों को हैरतपूर्ण निगाह से देखा जाय, तो कोई आश्चर्य नहीं।
इधर भूमंडलीकरण से प्रभावित विज्ञापन भी भाषा के साथ अनावश्यक खिलवाड़ कर रहे हैं। यह कहने के लिए पर्याप्त साक्ष्य हैं कि कुछ विज्ञापनदाताओं ने भाषा की हत्या करने की सुपारी ले रखी है। ठंडा’ माने कोकाकोला बताया जा रहा है। ‘ज्यादा प्रॉफिट कमाने की दवा बतायी जा रही है।’ मिर्जा ग़ालिब का मशहूर शेर है-‘दिले नादां तुझे हुआ क्या है/ आखिर इस दर्द की दवा क्या है?’ इस शेर को मरोड़कर इलेक्ट्रॉनिक विज्ञापन प्रसारित होता है कि ‘दिले नादां तुझे हुआ क्या है/ ज्यादा प्रॉफिट कमाने की दवा क्या है?’
भाषायी दृष्टि से भूमंडलीकरण का असर रिक्शेवालों पर भी कम नहीं हुआ है। बनारस में रिक्शेवाले ‘वेलकम सर, फिफ्टी रूपीज सर, प्लीज सर’ कहते प्रायः मिल जाएंगे। इलाहाबाद में रिक्शेवाले विश्वविद्यालय कहने पर नहीं ‘यूनिवर्सिटी’ कहने पर समझते हैं, पटना में रिक्शेवाले सचिवालय की जगह, ‘सेक्रेटेरियट’ का प्रयोग धड़ल्ले से करते हैं।
ऐसे में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के सामने चुनौतीपरक प्रश्न यह है कि भूमंडलीकरण के दौर में इनके आत्मसम्मान की रक्षा कैसे हो, इनकी तरक्की कैसे हो? भाषा की प्रतिरोधक शक्ति कैसे बरकरार रहे? शब्दों की धार को कुंद होने से कैसे बचाया जाय ! क्योंकि भारतीय भाषाओं के शब्द जब बिकेंगे तो ज़बान पर ताला लग सकता है।
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