
दूरदर्शन के लाभ, हानि और महत्व पर निबंध | टी. वी. की आधुनिक समाज में प्रासंगिकता अथवा दूरदर्शन से लाभ और हानियां (यूपी लोअर सबऑर्डिनेट मुख्य परीक्षा, 1996)
आधुनिक युग में विज्ञान ने अभूतपूर्व प्रगति की है। विभिन्न वैज्ञानिक आविष्कारों के द्वारा आधुनिक मनुष्य का जीवन काफी सरल हो गया है। इन्हीं आविष्कारों में से एक टेलीविजन का आविष्कार है। आज के युग में टेलीविजन के माध्यम से इंसान मनोरंजन के विभिन्न साधन जुटा लेता है। टेलीविजन को हिंदी में दूरदर्शन कहा जाता है। यह दो शब्दों टेली + विजन से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है दूर के दृश्यों का आँखों के सामने उपस्थित होना। टेलीविजन का सर्वप्रथम प्रयोग 1925 में ब्रिटेन के जॉन एल. बेयर्ड ने किया था जबकि भारत में इसका सर्वप्रथम प्रसारण 1959 में हुआ था। वर्तमान में एक तरफ टेलीविजन सूचनाओं के अद्यतन प्राप्ति का प्रमुख साधन भी है वहीं दूसरी तरफ यह दर्शकों को एक खास अवधारणा के प्रति वशीभूत होकर सोचने को मजबूर भी करता है।
जहाँ तक टेलीविजन का सवाल है। यह ज्ञानवर्द्धक तो है लेकिन जहाँ इसका दुरुपयोग होता है वहाँ समय का अपव्यय, बहुत होता है। इसीलिए बहुत से गार्जियन बच्चों को इससे दूर रखते हैं। ज्यादा टीवी देखने पर उसकी किरणें (Rays) आँखों को नुकसान पहुँचाती हैं।
बहुत से लोग टी. वी. से चिपके रहते हैं या हरदम देखते रहते हैं चाहे वे किसी उम्र के हों। इसीलिए इसे ‘बुद्धू का बक्सा’ भी कहा जाता है।
हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि टी.वी. के आविष्कार ने सिनेमा को व्यक्ति के और अधिक निकट ला दिया है। उसने टी.वी. को रसोई के यंत्रों की तरह घरेलू बना दिया है। उसने सिनेमा और मनोरंजन को ही नहीं, पूरी संस्कृति, राजनीति, धर्म, दर्शन, तीज-त्योहार, होटल-दुकान,
यानी सब कुछ को व्यक्ति के घर में ला पहुंचाया है जहां वह अकेला या घर-परिवार के साथ चाहे जिस मुद्रा में मनचाहे कार्यक्रम देख सकता है। उसके पास हर वक्त चयन की सुविधा रहती है-जो चाहे, जितना चाहे-देखे न देखे,चाहे तो देखते-देखते सो जाय । आइए जरा टी.वी. की वस्तुस्थिति पर गौर कर लें। टी.वी. की नकारात्मकता को साबित करने के लिए सबसे बड़ा तर्क माना जाता है उस पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों को। यह तो निर्विवाद है कि ये विज्ञापन निर्बाध और निरंकुश होते जा रहे हैं। उनकी अंतर्वस्तु तो कई बार आपराधिक होती है। जैसे-गोरेपन की श्रेष्ठता का संविधान विरोधी प्रचार। यह तो फिर भी भोंड़ा प्रचार है। जीवन के बहुमूल्य मूल्यों को माल बनाया जा रहा है जैसे प्यार को हीरे से, ईमानदारी को हमाम साबुन से और वात्सल्य को मैगी से जोड़ दिया गया है। कुल मिलाकर अगर हम प्रसारित एक-एक विज्ञापन का विश्लेषण करें तो हम आतंकित हो सकते हैं कि विज्ञान और तकनीकी की भरपूर मदद लेते हुए ऐसे प्रभावी चित्रांकन और संगीतमय लड़ियां जनता तक पहुंचाई जा रही हैं कि वे व्यक्ति पर छा जाएं और लोग अपनी चयन शक्ति खो बैठें। विज्ञापन धीरे-धीरे लोगों की उंगली पकड़ उन्हें सीधे मॉल ले जाने लगे हैं। वे मनुष्य को इतना लालची बनाते जा रहे हैं कि पल रह हैं बस नए-नए सामानों को जल्दी से जल्दी घर लान की सपने। कुल मिला कर टी.वी. बाजार के वर्चस्व को स्थापित करने का एक सरल और प्रभावी उपकरण बनता जा रहा है।
“टी.वी. के आविकार ने सिनेमा को व्यक्ति के और अधिक निकट ला दिया है।”
इस काम में विज्ञापन के अलावा सीरियल भी मदद कर रहे हैं। उनमें जैसा घर–परिवेश, वेश-भूषा दिखाया जाता है, प्रायः जैसा जीवन स्तर प्रस्तुत होता है, वह भी लोगों को बाजार के ही सपने दिखाता है।
भारत का टी.वी. मुख्यतः सिनेमा केंद्रित है और सीरियल भी सिनेमा की नकल ही करते हैं। उनकी अन्तर्वस्तु क्या है? उन्हें देख कर लगेगा कि भारतीय समाज जैसा कुटिल समाज तो कहीं होगा ही नहीं। सबसे अधिक दुर्दशा तो औरतों की है। औरतों को सजी-धजी गुड़ियों की तरह या फिर रामायण की कुटनी मंथरा की तरह पेश किया जाता है। ऐसा लगता है भारत की नारियों में खलनायिकाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। अन्धविश्वासों का तो बोलबाला है। हर सीरियल में एक पात्र पुरोहित या ज्योतिषी होगा ही। समाज को पीछे ले जाने वाली कहानियों की बहतायत हैं |
न्यूज चैनलों की संख्या बढ़ती चली जा रही। वहां भी दुर्दशा ही दिखती है। चौबीस घन्टे खबरें सुनानी हों और खबरों की अवधारणा यह हो कि बुरी खबरें ही खबर हैं तो कहां से मिलेंगी खबरें? इसलिए एक ही खबर पचासों बार दुहराई जाती है और जब उससे काम नहीं चलता तो खबरों में भी सिनेमा और गानों को घुसेड़ा जाता है। टी.वी. पर विचार-विमर्श और बहस-मुबाहिसा मुख्य रूप से प्राइम टाइम यानी 9 से 10-11 के बीच प्रस्तुत होता है जिसमें हर पार्टी के कुछ खास प्रवक्ता होते हैं। उनके विचार श्रोताओं को पहले से पता होते हैं। अक्सर चैनलों के एंकरों को बहस संचालित करना नहीं आता। कुछ चैनलों पर ही कुशल संचालक हैं अन्यथा ये बहसें न अच्छी तरह सूचित-शिक्षित-प्रशिक्षित करती हैं न जिज्ञासु और प्रबुद्ध बनाती हैं। यहां भी अंग्रेजी चैनलों की स्थिति हिन्दी से बेहतर होती है और भारत के अंग्रेजी चैनल भी बी.बी.सी. और हाल ही शुरू हुए अरबी चैनल अलजजीरा के सामने बौने पड़ जाते हैं। इसे विडंबना कहेंगे कि एक जमाने में दूरदर्शन को घटिया करार दिया गया था और अब दूरदर्शन चैनलों की स्थिति बेहतर होती जा रही है तथा अन्यों की बदतर।
इस संक्षिप्त रूपरेखा पर नजर डालने के बाद हम इस पर भी गौर करें कि इस दुर्दशा का कारण क्या है और इससे उबरने का कोई उपाय है भी या नहीं?
वास्तव में इस स्थिति का कारण न तो क्षमता की कमी है न रचनात्मकता की । मूल कारण है बदनीयती यानी उस नीयत में खोट है जिससे टी.वी. संचालित हो रहा है।
वास्तव में, सिनेमा और टी.वी. है तो व्यवसाय पर मूलतः एक सांस्कृतिक कर्म है। उदाहरण के लिए शिक्षा एक सांस्कृतिक कम है पर ज्यों-ज्यों यह व्यवसाय बनता जा रहा है शिक्षा की दुर्गति होती जा रही है। कारण यह है कि व्यवसाय का मूल लक्ष्य होता है मुनाफा-लगातार बढ़ने वाला मुनाफा। पूंजी कहते ही उस धन को हैं जो निवेशित धन को लगातार बढ़ाता जाय। अब मुनाफा कमाने वाले लोगों में भी कुछ लोग नेक नीयत हो सकते हैं और मुनाफे के लिए लक्ष्मण रेखा का उलंघन करने में हिचक सकते हैं। चालक शक्ति मुनाफा ही हो तो कम ही लोग संतुलन बनाकर नैतिकता का निर्वाह कर पाते हैं। |
सिनेमा-टी.वी. ऐसे खर्चीले माध्यम हैं कि उन्हें कोई स्वान्तःसुखाय नहीं चला सकता। इसलिए इनमें लगी पूंजी मुनाफे के साथ वापस आनी ही चाहिए। इसके लिए दर्शक जरूरी हैं। सिनेमा में तो ‘बॉक्स-आफिस चीजें आसानी से तय कर देता है पर टी.वी. का लगातार अधिकाधिक देखा जाना कैसे तय हो। इसके लिए मापक का काम करता है टी.आर. पी. जिसमें आसानी से हेराफेरी की जा सकती है। उसी आधार पर विज्ञापन मिलते हैं जिनको टी.वी. की प्राणवायु कहा जाता है। अधिकाधिक विज्ञापन के लिए नारी देह, हिंसा, प्रतिहिंसा, और किसी प्रकार का हथकंडा अपनाया जा सकता है जो दर्शकों-श्रोताओं को गुदगुदाए-उकसाए-छेड़े और जोड़े रहे। इस प्रक्रिया में दर्शक को शिक्षित–प्रशिक्षित करने और उसको परिष्कृत करने के दायित्व को भुला दिया जाता है। अगर दर्शकों को मात्र कंज्यूमर (ग्राहक) समझा जाय, प्रदर्शित चीज को माल और निर्माताओं को उद्योगपति और व्यवसायी तो निर्णायक एक ही बात रहेगी- विक्रेता। यही मुख्य कारण है टी.वी. और सिनेमा की दुर्दशा का।
“अगर दर्शकों को मात्र कंज्यूमर (ग्राहक) समझा जाय, प्रति चीज को माल और निर्माताओं को उद्योगपति और व्यवसायी तो निर्णायक एक ही बात रहेगी- विक्रेता। यही मुख्य कारण है टी.वी. और सिनेमा की दुर्दा का।”
यह स्वीकारने में किसी को शायद ही एतराज हो कि आजकल दूरदर्शन का चैनल डी.डी. भारती भारत का सबसे सूचक है कि अगर इच्छाशक्ति हो तो टी.वी. एक सार्थक और सर्जक दायित्व निर्वाह का उपकरण बन सकता है।
पर उपाय तो है ही। माध्यम को कम खर्चीला बनाया जाय और इसमें संस्कृतिकर्मियों की पहल हो जिसमें सरकार अपने जन–दायित्व के अन्तर्गत स्वयं दूरदर्शन को बेहतर बनाए और इस उपक्रम में लगे समर्थ और जन समर्पित प्रयासों की मदद करे तो स्थिति सुधर सकती है। हम अगर यह मान लें कि टी. वी. एक बेहद जरूरी उपकरण है और उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक परिवर्तन में एक रचनात्मक भूमिका है तो उपाय निकल सकते हैं। इस दिशा में पहल सांस्कृतिककर्मी को ही करनी पड़ेगी।