
शिक्षाप्रद कहानियाँ-अटूट प्रेम
सायराक्यूज एक नगर है सिसली में। वह अपने कुशल चित्रकारों, कवियों, लेखकों तथा विद्वानों के लिए कभी बहुत प्रसिद्ध था। सायराक्यूज में बहुत समय पहले डायोनायसिस नामक व्यक्ति रहता था। वह एक कार्यालय में काम करता था। अपनी चतुराई से वह पहले तो वहां की राजसी सेना का सेनापति बना और फिर आगे चलकर उन्नति करते-करते एक दिन वह सायराक्यूज का राजा बन बैठा। उसके राज्यकाल में धन-दौलत की तो कोई कमी न थी, परंतु फिर भी न जाने क्यों प्रजा उससे नाराज रहती थी। वह किसी पर भी विश्वास नहीं करता था। सभी को संदेह की नजर से देखता था। माना जा सकता है कि प्रजा उससे इसी कारण नाराज रहती हो।
डायोनायसिस के राज्य में डेमन तथा पायोथियाज नाम के दो युवक रहते थे। वे गहरे मित्र थे। वे सगे भाइयों समान रहते थे। वे सदा एक दूसरे पर प्राण छिड़कने को तैयार रहते थे।
एक बार किसी बात पर पायोथियाज ने डायोनायसिस को अत्याचारी और क्रूर राजा कह दिया। डायोनायसिस ने यह सुन लिया। वह क्रोध से जल उठा और उसने उसे अपने राजदरबार में पकड़ मंगवाया। वह उससे बोला, “मैंने जान लिया है, तुम मेरे शत्रु हो। अब मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोडूंगा।” उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि वे उसे शीघ्र ही मौत के घाट उतार दें।
लेकिन पायोथियाज मरने से पहले अपने बूढ़े और बीमार पिता को देखना चाहता था। अत: उसने राजा से कहा, “मुझे दो सप्ताह की छुट्टी देने की कृपा करें। मैं दो सप्ताह बाद आपकी सेवा में अवश्य ही उपस्थित हो जाऊंगा। तब आप मेरी बलि चढ़ा दें।”
राजा ने पायोथियाज के शब्दों पर विश्वास नहीं किया। वह जोर से ठहाका मारकर हंसा और कहने लगा, “क्या तुम मुझे परले सिरे का मूर्ख समझते हो?” पायोथियाज ने राजा से फिर दया के लिए प्रार्थना की। वह बोला, “आप मेरा विश्वास कीजिए। मैं आपका वचन पूरी तरह निभाऊंगा।”
“मैं तुम्हें दो सप्ताह की छुट्टी इस शर्त पर दे सकता हूं, यदि तुम अपने स्थान पर किसी व्यक्ति को हमारी जेल में छोड़ सको। क्या कोई तुम्हारे लिए दो सप्ताह तक जेल में रहने के लिए तैयार होगा?”
डेमन, जो पायोथियाज का मित्र था, राजा और अपने मित्र की बातचीत खड़ा-खड़ा सुन रहा था। वह तुरंत आगे बढ़कर राजा से बोला, “महाराज, मैं अपने मित्र के लिए खुशी-खुशी जेल में रहने को तैयार हूं।” राजा ने उससे त्योरियां चढ़ाकर कहा, “याद रखो। अगर यह नहीं लौटा तो इसके बदले तुम्हें मौत का फंदा चूमना होगा।”
डेमन ने उत्तर दिया, “मुझे पूरा विश्वास है, पायोथियाज दो सप्ताह से पहले ही यहां लौट आएगा।”
राजा ने कहा, “ठीक है!”
और डेमन को दो सप्ताह के लिए जेल में डाल दिया गया। पायोथियाज अपने बूढ़े और बीमार पिता को देखने के लिए अपने घर की ओर रवाना हो गया। वहां पहुंचकर वह पिता से मिला, हाल-चाल पूछा, दवा-पानी का प्रबंध किया और फिर उनसे अलविदा कहकर तुरंत सायराक्यूज के लिए लौट पड़ा।
अभी वह रास्ते के पहले छोर पर ही था कि दुर्भाग्य से तेज तूफान चल पड़ा। वह तूफान के बीच बुरी तरह घिर गया। अब उसके लिए यात्रा करना सरल न था। वह उदास हो गया। उसे चिंता सताने लगी कि अब वह अपने दिय गए दो सप्ताह के समय तक सायराक्यूज नहीं लौट सकेगा। दो सप्ताह इस तूफान से संघर्ष करने में ही निकल जाएंगे। उसके स्थान पर उसके निर्दोष मित्र को मार दिया जाएगा। ऐसी दशा में उसे कैसे बचाया जाए? वह अपने वचनों को कैसे निभाए?
वह ऐसा सोच ही रहा था कि तभी उसकी उलझन को जानकर सौभाग्य से एक दयालु व्यक्ति ने अपना घोड़ा उसको दे दिया। उसने बिना देर किए घोड़े पर सवार हो सायराक्यूज लौटने के लिए उसको एक जोरदार ऐड़ लगाई। ऐड़ लगते ही घोड़ा सायराक्यूज की दिशा में सरपट दौड़ने लगा।
धीरे-धीरे दो सप्ताह बीत गए। दो सप्ताह की अवधि के अंतिम दिन का सूर्य भी ढलता जा रहा था परंतु पायोथियाज अभी तक भी सायराक्यूज नहीं लौट सका था।
इधर डायोनायसिस ने जेल के अंदर डेमन से पूछा, “कहां है तुम्हारा मित्र? क्या तुम सोचते हो कि वह वापस आएगा?”
डेमन ने कहा, “मुझे पूरा विश्वास है कि वह आएगा। लगता है, शायद वह किसी संकट में फंस गया है।”
डायोनायसिस ने अपने मन की बात बताई, “पर मुझे नहीं लगता कि वह आएगा।”
इस पर डेमन ने दृढ़ता से कहा, “मैं नहीं चाहता कि वह वापस आए। मैं उसके स्थान पर अपने प्राण देकर भी, उसका सच्चा मित्र होते हुए उसे हर हालत में बचाना चाहता हूं।”
डायोनायसिस ने उसी समय अपनी आज्ञा को ऊंचे स्वर में सुनाया, “तो डेमन ! अब मरने के लिए तैयार हो जाओ।” इतना कहकर उसने अपने सेवकों को आदेश दिया, “डेमन को ले जाओ और सदा के लिए इसका अंत कर डालो।”
राजा के ये शब्द अभी पूरे भी नहीं हो पाए थे कि पायोथियाज किसी करिश्मे की भांति वहां आ पहुंचा। वह बहुत थका होने के कारण हांफता-हांफता कहने लगा, “मैं लौट आया हूं। कृपया डेमन को छोड़ दें।”
फिर वह डेमन की ओर मुड़ा और प्यार भरे शब्दों में बोला, “मेरे सच्चे और प्यारे मित्र तुम्हें बार-बार मेरा हार्दिक धन्यवाद! अब तुम घर जाओ और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो। किंतु यह कभी मत भूलना कि पायोथियाज भी तुम्हारा कोई मित्र है।”
डेमन ने उत्तर में कहा, “तुम्हारे बिना मैं सुखी जीवन नहीं जी सकूँगा। मैं नहीं चाहता था कि तुम आज ही लौट आओ। मैं तो तुम्हें बचाने के लिए स्वयं बलि हो जाना चाहता था।”
डायोनायसिस दोनों मित्रों के अटूट प्रेम को देखकर बहुत प्रभावित हुआ। वह उनसे बोला, “लेकिन अब मैं तुम दोनों में से किसी की भी बलि नहीं चढाऊंगा। तुम दोनों के गहरे और सच्चे प्रेम ने मेरे मन को झकझोर कर रख दिया है। मैं चाहता हूं कि आज से तुम दोनों मेरे भी मित्र बन जाओ। आज से मैं तुम्हें स्वतंत्र करता हूं। कभी तुम लोगों को मेरी सहायता की आवश्यकता पड़े तो मुझे अवश्य याद कर लेना। मुझे आप लोगों की सहायता करके प्रसन्नता ही होगी।”
और वे तीनों उस दिन से गहरे मित्र बन गए तथा समय-समय पर एक दूसरे के सुख-दुख में हाथ बंटाने लगे।
शिक्षाप्रद कहानी- नौरंगी की चतुराई
रामगढ़ कस्बे में नौरंगी लाल नामक एक व्यक्ति रहता था। उसकी बचपन से ही संगीत एवं नाच-गाने में गहरी रुचि थी। पढ़ाई-लिखाई तथा घर के कामों में उसकी बिलकुल भी रुचि नहीं थी। माता-पिता उसे हर तरह से समझा-बुझाकर थक चुके थे परंतु उनकी बातों का उस पर कोई असर न होता।
आखिर परिवार वालों ने सोचकर नौरंगी लाल की शादी कर दी और शादी के बाद उसे घर से अलग बसा दिया कि शायद शादी के बाद अलग रहकर उसे आटे दाल का भाव मालूम पड़े और वह अपनी गृहस्थी चलाने के लिए कुछ काम धंधा करने लगे। कुछ दिन तो नौरंगी लाल का वही पुराना रवैया रहा, लेकिन जब घर में खाने के लाले पड़ने लगे तो आखिकार नौरंगी ने कुछ न कुछ काम करने की सोची। आजीविका का तो उसके पास कोई पक्का साधन था नहीं, अतः उसने अपने ही इलाके के अपने जैसे आठ अन्य लोगों का चुनाव करके अपनी एक नाटक मंडली बना ली। नौरंगी लाल उस नाट्य मंडली का मुखिया था।
धीरे-धीरे नौरंगी की नाट्य मंडली की लोकप्रियता आस-पड़ोस के गांव कस्बों में भी बढ़ने लगी। फलस्वरूप अब उसे अच्छी आमदनी होने लगी थी। नौरंगी का परिवार अब सुख-चैन की जिंदगी बिताने लगा।
यदा-कदा राजदरबार से भी उसकी मंडली के लिए बुलावा आने लगा था। राजदरबार में प्रस्तुत किए जाने वाले कार्यक्रमों को लेकर भी नौरंगी की मंडली की खूब सराहना होती। आखिर एक बार राजा ने नौरंगी के कार्यक्रम से खुश होकर इनाम के रूप में उसे अपनी एक जागीर प्रदान कर दी। अब नौरंगी की जागीर से भी अच्छी-खासी आय होने लगी थी।
नौरंगी और उसके परिवार के दिन अब इसी प्रकार हंसी-खुशी बीत रहे थे। एक बार नौगढ के जागीरदार माधव सिंह की पुत्री के विवाह के अवसर पर उसकी मंडली को निमंत्रित किया गया। नौरंगी अपनी मंडली के सदस्यों के साथ नौगढ़ प्रस्थान कर गया। नौगढ़ और रामगढ़ के बीच दस कोस की दूरी थी और रास्ता बहुत खतरनाक जंगलों से होकर गुजरता था। इस घने सुनसान जंगल में जंगली जानवरों के अलावा अकसर चोर-डाकुओं का भय भी बना रहता था।
नौरंगी लाल अपनी मंडली के सदस्यों के साथ तेज कदमों से नौगढ़ की ओर बढ़ा चला जा रहा था। उसकी इच्छा थी कि वह शाम होने से पहले ही नौगढ़ की हवेली में पहुंच जाए। दिन भर का थका-मांदा सूरज कैमूर पर्वतमालाओं की ओट में छिपने की तैयारी करने लगा था। शाम घिर आई थी। सहसा एक पहाड़ी नाले के पास तीन हट्टे-कट्टे डाकुओं ने उनका रास्ता रोक लिया और डाकुओं के सरदार ने कड़कती आवाज में पूछा, “जो कुछ माल-असबाब तुम्हारे पास है, चुपचाप हमारे हवाले कर दो वरना काट कर तुम सभी को इसी नाले में बहा दूंगा।”
बेचारे नौरंगी और उसके साथियों के पास तो तबला और ढोलक के अलावा और था ही क्या, जो वे डाकुओं को देकर अपनी जान बचाते। नौरंगी लाल ने बडी विनम्रता के साथ डाकुओं से कहा, “भाई साहब! हम लोग तो गरीब नाचने-गाने वाले लोग हैं और नौगढ की हवेली में शादी में जा रहे हैं। हमें माफ कीजिएगा, हमारे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है।”
डाकुओं पर उनकी बातों का कोई असर न हुआ। डाकुओं के सरदार ने फिर गरजते हुए कहा, “अरे, तुम्हारे पास पैसे नहीं हैं तो क्या हुआ? जब तक हम न कहें, तब तक तुम लोग हमारे मनोरंजन के लिए नाचते गाते रहोगे।”
बेचारा नौरंगी, अब मरता क्या न करता? उसने विवश होकर अपनी मंडली के साथियों से अपनी कला का कौशल दिखाने को कहा, तीनों डाकू अब मस्त होकर उनका नाच-गाना देखने लगे। नौरंगी को डाकुओं से मुक्ति का कोई कारगर उपाय सामने दिखाई नहीं दे रहा था।
तभी नौरंगी लाल के तबलची साथी प्यारे को एक तरकीब सूझी। उसने संगीत की कूट भाषा में अपने तबले पर थाप देकर कहा, “नौरंगी लाल बिन बिन…एक-एक पर तीन-तीन…तबला बाजे धिन धिन।”
तभी नौरंगी लाल के तबलची साथी प्यारे को एक तरकीब सूझी। उसने संगीत की कूट भाषा में अपने तबले पर थाप देकर कहा, “नौरंगी लाल बिन बिन…एक-एक पर तीन-तीन…तबला बाजे धिन धिन।”
यह सुनते ही नौरंगी लाल की मंडली के कुल नौ सदस्य एक साथ एक-एक डाकू पर तीन-तीन की संख्या में टूट पड़े। डाकू तो संगीत और नृत्य की खुमारी में अपने अस्त्र-शस्त्र अलग रखकर मस्ती में झूम रहे थे। उन्होंने इन गवैयों से इस तरह के आक्रमण की कोई कल्पना तक न की थी।
नौरंगी लाल और उसके साथियों ने आखिर मार-मार कर तीनों डाकुओं को अधमरा कर दिया और उनसे भविष्य में फिर कभी किसी को भी न लूटने-खसोटने तथा कोई अच्छा काम शुरू करने की कसम दिलवाकर जमीन में उनकी नाक रगड़वाकर माफी मंगवाई और उनकी जान बख्श दी। और इस तरह डाकुओं को पराजित कर नौरंगी लाल शादी में शामिल होने के लिए अपने साथियों के साथ नौगढ़ की हवेली की ओर चल पड़ा।
नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ-तरकीब
प्राचीन काल की बात है। एक बार किसी गांव में अकाल पड़ा। खेत सूख गए। पशुओं के लिए चारा न रहा। लोग भूख से मरने लगे। रोजगार के साधनों के अभाव में गरीबों के लिए एक जून रोटी खाना भी मुश्किल हो गया।
गांव का जमींदार एक लोभी और अत्याचारी व्यक्ति था। धन ही उसके लिए सबकुछ था। उसके गोदामों में अनाज भरा हुआ था, किंतु उसने वाजिब दाम में गांव वालों को बेचने के बजाय आसपास के बाजारों में ऊंचे दामों पर बेचना शुरू कर दिया।
गांव के गरीब भूखे लोगों ने एक सभा की। एक ने कहा, “हमें गांव के जमींदार से अनाज देने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।”
सभा में बैठे एक नौजवान ने कहा, “प्रार्थना करने से वह कंजूस हमें कुछ नहीं देगा। अत: मैं उसके घर जाकर अपनी एक युक्ति से अनाज लेकर आता हूं।”
ग्रामीणों को विश्वास नहीं हुआ कि नौजवान को इस काम में सफलता मिलेगी। फिर भी सबने उसकी बात मान ली। नौजवान जमींदार के भोजनघर की खिड़की के निकट उसके बगीचे में आकर एक पेड़ की तरफ चुपचाप देखने लगा। जमींदार अभी भोजन करके खिड़की पर आया ही था, नौजवान को बगीचे में खड़ा देखकर जमींदार बोला, “कौन है ? बगीचे में खड़ा क्या कर रहा है?”
नौजवान ने कोई जवाब नहीं दिया। जमींदार क्रोधित होकर उसके पास गया। बोला, “बहरा हो गया है ? सुना नहीं, मैं क्या पूछ रहा हूं ? यहां तुम क्या कर रहे हो?”
“कुछ नहीं, मैं इस पेड़ पर छबील पक्षी का घोंसला ढूंढ़ रहा हूं। कल मैंने उसे इसी पेड़ पर बैठे देखा था।” नौजवान ने जवाब दिया।
“छबील पक्षी! वह कौन-सा पक्षी है?” जमींदार ने आश्चर्य से पूछा।
“वह पक्षी बहुत मुश्किल से दिखाई देता है। वह जिस पेड़ पर घोंसला बनाता है, उसमें चमत्कारी संजीवनी बेलबूटी होती है।”
“संजीवनी बेलबूटी?”
“हां, छबील पक्षी अपना घोंसला संजीवनी बेलबूटी से बनाता है, जिसमें अद्भुत शक्ति होती है।”
“अच्छा, क्या शक्ति होती है?”
“पहली बात तो यह कि वह बहुत कीमती होती है। सोने से भी अधिक कीमती। दूसरी बात यह कि वह इतनी चमत्कारी होती है कि उसे सिर पर रखते ही कोई भी व्यक्ति एकदम से गायब हो सकता है। गायब हुआ व्यक्ति सबको देख सकता है, लेकिन उसे कोई नहीं देख सकता।” नौजवान ने इतना कहा और वह एकदम उछल पड़ा, “मिल गया। छबील पक्षी का घोंसला मिल गया। मैं अभी उसे अपने घर ले जाता हूं।”
जमींदार ने देखा कि पेड़ पर सचमुच किसी पक्षी का घोंसला है, जिसे देखकर नौजवान बहुत खुश हो रहा है। वह बोला, “खबरदार ! जो इस घोंसले को अपने घर ले जाने की कोशिश की। यह मेरे बगीचे के पेड़ पर है। इस पर मेरा अधिकार है। मैं छबील का यह घोंसला तुम्हें नहीं दूंगा।”
“ठीक है! अगर तुम घोंसला मुझे नहीं दोगे तो मैं इसे नष्ट कर दूंगा, मुझे इसके खत्म करने की रीति भी आती है।” नौजवान ने यह धमकी दी तो जमींदार कुछ शांत हुआ। बोला, “मैं तुमको पचास अशरफियां दूंगा। तुम इसे मेरे लिए छोड़ दो। और यहां से चुपचाप चले जाओ।”
“लेकिन इतनी अदभुत, कीमती और चमत्कारी चीज मैं तुमको इतने सस्ते में क्यों बेचं? दाम बढाओ तो सौदा पक्का हो।” नौजवान ने कहा, “हां, मुझे धन की जरूरत है। यदि तुम मुझे पचास बोरे अनाज दे दो तो यह सौदा पक्का हो सकता
जमींदार ने सौदा मंजूर कर लिया। नौजवान ने अनाज लेकर उसी समय गांव के जरूरतमंद लोगों को बांट दिया।
उधर, जमींदार ने अपने नौकरों को आदेश देकर पेड़ से वह घोंसला सुरक्षित उतरवा लिया और अपनी पत्नी के सामने उसके एक-एक तिनके को अपने सिर पर रखकर पूछने लगा, “सच बताओ, क्या मैं तुम्हें दिखाई देता हूं।”
पत्नी बोली, “साफ दिखाई देते हो!”
जमींदार बार-बार अलग-अलग तिनका सिर पर रखकर दोहराता रहा, “ठीक तरह से देखकर बताओ, क्या मैं तुम्हें दिखाई देता हूं?”
उसकी पत्नी तंग आ गई। झल्लाकर बोली, “मुझे कुछ दिखाई नहीं देता। अब तुम यहां से जाओ।”
जमींदार खुश होकर बाहर निकल पड़ा। सबसे पहले वह गांव के हलवाई की दुकान पर गया और वहां बन रही जलेबियां उठाकर बिना दाम चुकाए ही चलने लगा। हलवाई ने समझा कि जमींदार है, दाम चुकाना भूल गया होगा, सो मैं उससे बाद में ले लूंगा। अत: वह कुछ बोला नहीं।
थोड़ी देर बाद जमींदार एक आभूषण विक्रेता की दुकान में बेधड़क घुसकर आभूषण बटोरने लगा। दुकान के कर्मचारियों ने उसे तुरंत धर दबोचा। पहले तो उसकी खूब पिटाई की, फिर उसे पुलिस के हवाले कर दिया। उसे अपनी जमानत देनी पड़ी।
जमींदार समझ गया कि उसके साथ धोखा हुआ है, लेकिन इससे उसे सीख भी मिल गई कि अकाल के कठिन दौर में लोगों की सहायता नहीं करने के कारण ही उसकी यह गत बनी और उसे सजा भी मिली। भविष्य में उसने सबकी मदद करने की कमस खाई। उसे उस नौजवान की चतुराई और अपनी मूर्खता पर भारी पश्चाताप हुआ।
रोचक और शिक्षाप्रद कहानियाँ-नीम का पेड़
एक राजा था। वह दयालु और धर्म की राह पर चलने वाला, जनता के कष्टों को दूर करने का सदैव प्रयत्न करता रहता। लेकिन राजकुमार का स्वभाव राजा से बिलकुल विपरीत था। उसे निरपराध नागरिकों को यातना देने में आनंद आता था। स्वभाव से दुष्ट और निर्दयी और बोलने में भी कर्कश। राजकुमार को बार-बार क्रोध आ जाता था।
राजा, राजकुमार की इन हरकतों से काफी खिन्न था। राजा ने अपने पुत्र को सुधारने के लिए जितने प्रयत्न संभव थे, किए लेकिन राजकुमार अपने कुमार्ग से नहीं हटा। उसकी हरकतों से राज्य की जनता में विरोध बढ़ता जा रहा था। जैसे जैसे राजकुमार की उम्र बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे उत्पात भी बढ रहे थे।
सभी परिजन उससे किसी न किसी तरह मुक्त होना चाहते थे। धीरे-धीरे इसकी जानकारी पड़ोस के नगर में रहने वाले एक संत को पड़ी। संत ने सोचा यह तो एक दिन तानाशाह बनकर नगरवासियों को काफी परेशान करेगा। संत ने उस राजकुमार को भले मार्ग पर लाने का निश्चय किया। संत ने राजकुमार को अपने पास नहीं बुलाया बल्कि स्वयं उसके पास गए।
संत उसे एक छोटे नीम के वृक्ष के पास ले गए और उससे कहा, “राजकुमार! जरा इस वृक्ष का पत्ता तो तोड़कर देखो, इसका स्वाद कैसा है?”
राजकुमार ने झट से पत्ते तोड़े और एक पत्ते को मुंह में चबा डाला तो राजकुमार का मुंह कड़वाहट से भर गया। इतनी सी बात से राजकुमार आपे से बाहर हो गया। इसके लिए उसने संत से तो कुछ नहीं कहा परंतु उस पेड़ को अपने नौकरों को आदेश देकर उखड़वा दिया।
संत राजकुमार से बोला, “अरे राजकुमार यह आपने क्या किया।” राजकुमार बोला, “इस पौधे के लिए तो यही किया जाना चाहिए था क्योंकि जब अभी से ही इतना कड़वा है तो और बढ़ने पर तो विष ही बन जाएगा। संत जी, जो कुछ मैंने किया है वह ठीक ही किया है।” संत राजकुमार से ऐसा ही कहलवाना चाहता था।
संत जी, बड़े ही गंभीर स्वर में बोले, “राजकुमार! तुम्हारे दुर्व्यवहार और अत्याचारों से परेशान होकर यदि जनता तुम्हारे से वही व्यवहार करने को तैयार हो जाए जो तुमने नीम के पौधे के साथ किया, तो इसका तुम्हारे पास क्या इलाज है?”
इससे राजकुमार को काफी झटका लगा और संत जी द्वारा दिखाई राह पर चलने का निश्चय किया और फिर कभी बुराई की राह पर न गया।