
भिक्षु और नर्तकी
एक नगर में एक भिक्षु आया। वह भजन गाता हुआ अपनी धुन में चला जा रहा था। तभी एक नर्तकी ने उसे देखा। वह उसपर मोहित हो गई। दौड़कर वह उसके पास गई और अपने घर आने का निमंत्रण दिया। उसकी बात सुनकर भिक्षु ने कहा, ‘जरूर आऊंगा, पर अभी नहीं। अभी तो तुम समर्थ हो, तुम्हारे पास सब कुछ है। तुम्हें मेरी जरूरत नहीं है।
लेकिन इतना भरोसा रखना कि जिस दिन तुम्हें मेरी जरूरत होगी, उस दिन मैं तुम्हारे पास जरूर आऊंगा। यह सुनकर नर्तकी नाराज हो गई। उसने कहा, ‘यह कहकर तुमने मेरा अपमान किया है। मेरे हजारों चाहने वाले हैं। मुझे तुम्हारी जरूरत कभी नहीं पड़ेगी?’ भिक्षु मुस्कुराकर वहां से चला गया।
देखते ही देखते बीस साल गुजर गए। नर्तकी के पास धन और। यौवन दोनों खत्म होने लगे। नर्तकी को कोढ़ हो गया। उसका शरीर गलने लगा। एक दिन नगरवासियों ने उसे गांव से बाहर निकाल दिया। वह अंधेरी रात में भूखी प्यासी एक पेड़ के पास बैठी अपनी किस्मत को कोस रही थी कि कल तक जहां हजारों मदद के लिए आ खड़े होते थे, वहीं आज कोई पानी पिलाने वाला भी नहीं है।
अचानक किसी ने उसके सामने ठंडे जल से भरा पात्र कर दिया। पानी पीकर उसके जाते प्राण लौट आए। नर्तकी ने पूछा, ‘तुम कौन हो?’ उस व्यक्ति ने जवाब दिया, ‘मैं वही भिक्षु हूं, जिसे तुमने बीस साल पहले अपने घर आने का निमंत्रण दिया था।
उस समय तुम्हें मेरी जरूरत नहीं थी। लेकिन आज जब कोई तुम्हें पहचानने को तैयार नहीं है, तब मैं तुम्हें पहचानता हूं।’ नर्तकी को अपनी – भूल का एहसास हो गया। उसने भिक्षु से हाथ जोड़कर क्षमा मांगी। भिक्षु उसके पास बैठ गया और उसका सर अपनी गोद में रख लिया। नर्तकी को इतना आनंद और शांति कभी महसूस नहीं हुई थी। उसके बाद नर्तकी के प्राणों ने उसके शरीर को त्याग दिया। ]