
संगति का महत्व पर निबंध |Sangati Ka Mahatva Nibandh In Hindi
‘संगति’ का अर्थ है–सहचर्य का भाव। मनुष्य अपने दैनिक जीवन में जिसके साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करता है, वह उसकी ‘संगति’ कहलाती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह बिना संगति के नहीं जी सकता। अब यह विचारणीय प्रश्न है कि मानव किसके साथ संगति करे और किसके साथ न करे। क्योंकि संगति से ही गुण और दोष उत्पन्न होते हैं।
संगति के विषय में एक अंग्रेज चिंतक का विचार है, “किसी व्यक्ति की पहचान उसकी संगति से होती है।” ।
संगति दो प्रकार की होती है-सुसंगति और कुसंगति। सज्जनों की संगति ‘सुसंगति’ कहलाती है और दुर्जनों की संगति ‘कुसंगति’ कहलाती है। सुसंगति मनुष्य को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करती है, जबकि कुसंगति उसे कुमार्ग की ओर ले जाती है। इसलिए साधुओं की संगति में रहने वाले लोग साधु बन जाते हैं तथा दुष्टों की संगति में रहने वाले दुष्ट बन जाते हैं; यथा-
गगन चढ़ई रज पवन प्रसंगा।
कीचहिं मिलई नीच जल संगा॥
अर्थात पवन की संगति से वसुधा-वक्ष पर आच्छादित धूलकण आकाश की ऊंचाई छू लेता है, परंतु वही रजकण वर्षा जल के साथ कीचड़ में बदल जाता है। स्वाति नक्षत्र की बूंदें संगति के अनुरूप ही अपना रूप ग्रहण करती हैं; यथा-कदली में कपूर, सीप में मोती तथा भुजंग में विष बनती हैं।
सुसंगति का मानव-जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में शठ को भी सुधरते देखा गया है, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा भी स्वर्ण बन जाता है। इस संबंध में ‘रामचरित मानस’ में गोस्वामी तुलसीदास जी लिखते हैं
सठ सुधरहिं सत संगति पाई।
पारस परसि कुधातु सुहाई॥
इसी प्रकार कंचन के संसर्ग में कांच भी मरकत मणि की आभा प्राप्त कर लेता है और कीट भी सुमन के संसर्ग से देवताओं के शीश पर चढ़ते हैं।
सुसंगति के प्रभाव से संबंधित कई उदाहरण हमारे इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। श्रीकृष्ण की संगति पाकर अर्जुन महाभारत का विजेता बना। हनुमान, विभीषण, सुग्रीव आदि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की सुसंगति से पूज्य बन गए। देवर्षि नारद की सुसंगति पाकर वाल्मीकि डाकू से आदिकवि बन गए। इसी प्रकार अंगुलिमाल भगवान बुद्ध की संगति में सद्गति को प्राप्त हुआ। रामकृष्ण परमहंस की संगति में नरेंद्र ही स्वामी विवेकानंद बन गया। चाणक्य के संसर्ग से चंद्रगुप्त भारत का सम्राट बना।
इसके विपरीत कुसंगति से जीवन में हानि है। मामा शकुनि के संसर्ग में रहकर दुर्योधन अपने कुल का नाश कर बैठा। समुद्र लंका से जुड़ा था, अत: रावण के साथ समुद्र को भी श्रीराम का कोप भाजन बनना पड़ा
बसि कुसंग चाहत कुशल, यह रहीम अफसोस।
महिमा घटी समुद्र की, रावण बसा पड़ोस॥
कहां दूध और कहां मदिरा? लेकिन यदि यह दूध कलवारिन के हाथ लग जाए, तो लोग उसे मदिरा समझने लगते हैं
रहिमन नीच न संग बसि, लगत कलंकन काहिं।
दूध कलारिन हाथ लखि, मद समुझहिं सब ताहिं।
अतः समग्र प्रगति की कुंजियों में एक है-सुसंगति। इससे लौकिक एवं पारलौकिक दोनों उन्नयन संभव है। इसलिए हमें अपने जीवन के एक-एक क्षण को सुसंगति में बिताना चाहिए-
एक घड़ी आधों घड़ी, आधों में पुनि आध।
तुलसी संगति साधु की, हरै कोटि अपराध ॥