
साम्प्रदायिकता पर निबंध-sampradayikta par nibandh
साम्प्रदायिकता पर निबंध – हमारे राष्ट को जिन दुर्बल करनेवाली विषम व्याधियों ने बुरी तरह ग्रस लिया है, उनमें सांप्रदायिकता का नाम सर्वोपरि है। सांप्रदायिकता वह विषवल्लरी है, जो हमारे सामहिक जीवन पर छाकर सर्वनाश का समावर्तन करनेवाली है। सांप्रदायिकता हमारे राष्ट्रीय विकास के रथ को रोकनेवाली राक्षसी है, यह प्रगति की उषाबेला पर छानेवाली कज्झटिका है, यह एकता की मजबूत डोर को काटनेवाली कराल कैंची है, यह भ्रातृत्व की गर्दन पर चलनेवाली तेज छुरी है, यह उदारता की गाड़ी को कालकोठरी में धकेल देनेवाली संकीर्णता की दुहिता है। यह उस भूकंप की माया है, जो सामाजिक संरचना की गाँठों को निर्ममता से अस्त-व्यस्त कर देती है।
सांप्रदायिकता का अभिप्राय होता है—किसी संप्रदाय, धार्मिक मतवाद के प्रति इतना अविचल आग्रह, जो असहिष्णुता को जन्म देता है, अन्य धार्मिक मतों को सहन नहीं कर सकता, यहाँ तक कि उनका मूलोच्छेद तक कर देना चाहता है। इस प्रकार, सांप्रदायिकता हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी आदि धर्मों के प्रति कट्टरपन हो सकता है, किंतु हमारे देश में हिंदू-मुस्लिम-विद्वेष एवं संघर्ष ही सांप्रदायिक अभिशाप के रूप में प्रमुखतः दिखलाई पड़ रहे हैं।
यह सांप्रदायिकता मुस्लिम-शासन में हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाने, इस्लाम नहीं स्वीकार करने पर दीवारों में चुनवाने तथा मौत के घाट उतारने का कुकांड उपस्थित कर चुकी है। अँगरेजों ने इस सांप्रदायिकता का सहारा लेकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच फूट का बीज बोकर मनमाना शासन किया था। जब वे 1947 ई० में इस देश से बोरिया-बिस्तर गोल करने लगे, तब भी उन्होंने इस सांप्रदायिकता को अपने तरकस के अंतिम तीर के रूप में प्रयुक्त किया। उनका निशाना अचूक रहा। भारतमाता के वक्षःस्थल के दो टुकड़े हुए–भारत और पाकिस्तान। हिंदू-मुस्लिम दोनों भूल गए कि वे एक ही डाल के फूल हैं, एक ही माता के लाल हैं।
हिंदू-मुसलमान दोनों आपस में जानी दुश्मन की तरह भिड़ गए थे और आपस में रक्त की होली मच गई थी। नोआखाली और तारापुर की घटनाएँ मानवता की हत्या की घटनाएँ हैं। आदमी वहशी हो गया था, जंगली जानवर से भी बर्बर । इनसान मर गया था। तब भला अपनापन का दामन चाक होने से बच कैसे जाता? इस सांप्रदायिकता की आग में हमें अनगिनत प्रतिभाओं के साथ राष्ट्रपिता बापू तक की आहुति देनी पड़ी थी।
स्वतंत्रता के नवजात शिशु के माथे पर शरणार्थियों के प्रबंध का विकट भार आ गया था, तंगदस्ती की हालत में उसे करोड़ों रुपये की चपत लगी थी। इस भयावह रोमांचकारी दृश्य के साथ सांप्रदायिकता के बीभत्स नाटक का पटाक्षेप हो जाता, तो एक बात थी, किंतु इसका विस्तार होता ही गया। सांप्रदायिकता के भूचाल के झटके इस देश की आजादी के बाद भी बार-बार लगते रहे हैं।
सांप्रदायिकता का यह ज्वालामुखी कभी इलाहाबाद तो कभी मेरठ, कभी अलीगढ़ तो कभी अहमदाबाद, कभी नागपुर तो कभी जबलपुर, कभी राँची तो कभी जमशेदपुर में अपना दाहक लावा उगलता ही रहा और न मालूम कितने घरों को तबाह करता रहा। 1968 ई० के सितंबर महीने में किलों, मीनारों और मस्जिदों के नगर अहमदाबाद में सांप्रदायिकता का ऐसा समुद्री तूफान आया कि हजारों लोग बलि के बकरे की तरह जबह किए गए, लगभग तीन हजार दूकानें और मकान जले तथा पंद्रह हजार लोग बेघरबार हुए। उनकी कराह और कड़वाहट की कहानी क्या कभी भुलाई जा सकेगी? फिर पता नहीं कब, कहाँ यह अग्निवृष्टि हमारे राष्ट्रीय जीवन की बची-खुची फसल को पूरी तरह स्वाहा कर जाए।
किसी भी व्याधि की चिकित्सा के पूर्व उसका निदान आवश्यक है। सांप्रदायिकता की इस बीमारी के कई कारण हैं। मुल्ला-मौलवी, महंथ-धर्मगुरु सभी ने धर्मों को बेतुका बना दिया है। उन्होंने महम्मद. ईसा और राम-कृष्ण के नाम पर दलों का संगठन कर लिया है, उनकी गलत व्याख्या का बाजार बसा लिया है। अब कोई नहीं है, जो ईश्वर के साथ हो।
राजनीतिक पार्टियों की तरह वे अपने-अपने मुहम्मद, ईसा, राम-कृष्णवाले दलों की सर्वश्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते है, तरह-तरह के मायाजाल फैलाते हैं। अपनी गद्दी कायम रखने के लिए वे अपने चेलों से दूसरे चेलों के सर फोड़वाते हैं। वे इसे ‘धर्मयुद्ध’ का पवित्र नाम देते हैं और धर्मप्रचार में शरीर त्याग करनेवालों की मुक्ति का प्रलोभन देते हैं। आज धर्म के नाम पर इतना अधर्म हो रहा है कि हैरानी होती है।
धर्म के ठेकेदारों के अलावा राजनीतिक दलाल भी सांप्रदायिकता के विषवृक्ष के पालन के लिए कम जिम्मेवार नहीं। कुछ राजनीतिज्ञ कभी अल्पसंख्यकों को उकसाकर, कभी बहुसंख्यकों की पीठ ठोंककर दोनों धर्मों, जातियों के लोगों को आपस में लड़ाकर अपनी नेतागिरी बरकरार रखना चाहते हैं। उन्हें राष्ट्रहित का जरा भी खयाल नहीं होता, वे तो सांप्रदायिकता की आग में हाथ सेंककर मजा लेना चाहते हैं। कुछ नेताओं को इसी बहाने अपने को अल्पसंख्यकों का रहनुमा साबित करने का मौका मिल जाता है और उनके लिए चुनाव-युद्ध में भी विजयी होना आसान हो जाता है।
इसके अतिरिक्त समाज में कुछ ऐसे विकृत तत्त्व होते हैं, गुंडे-बदमाश होते हैं, जो किसी के सीने में छुरा भोंककर हिंदू-मुस्लिम-दंगे का रूप दे देना चाहते हैं, जिससे कि उन्हें लटने-खसोटने का अवसर आसानी से मिल जाए। इधर राम-जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के नाम पर सांप्रदायिकता का जैसा तांडव देखा गया, वह अकल्पनीय ही नहीं, वह हेय है।
सांप्रदायिकता की इस महामारी को दूर करने के लिए कई उपाय हो सकते हैं। प्रथम तो हमें धर्म के मूल रहस्य को समझना होगा, हमें व्यापक मानव-धर्म में विश्वास रखना होगा, हमें नई आध्यात्मिक दृष्टि विकसित करनी होगी। महर्षि अरविंद ने अपने सांप्रदायिकताविहीन अध्यात्मवादी चिंतन को अपनी पुस्तक ‘द ह्यूमन साइकिल’ में इस प्रकार व्यक्त किया है-“धार्मिकता मनुष्य की आत्मा में ईश्वरीय राज्य का नाम है; किसी पंडा, पोप या मुल्ला की सलतनत का नहीं।” वे फिर कहते हैं, “धार्मिक संप्रदायों के झगड़े उन बरतनों के झगड़ों के समान हैं, जिनमें हरेक यही कहता है कि अमरता देनेवाला सुधारस सिर्फ उसी में भरा है। हम बरतनों के पीछे क्यों लड़ें, हमें सुधारस चाहिए, चाहे वह किसी बरतन में हो !”
सांप्रदायिकता के इस उपचार के लिए साहित्य और संगीत का योगदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं होगा। जिस हिंदू-मुस्लिम ऐक्य का उद्घोष कबीर, रहीम, रसखान, ताज, रवींद्रनाथ, यशपाल, राही मासूम रजा आदि ने किया, जिसके प्रेम के गीत महान संगीतकार तानसेन और मशहूर कव्वाल हब्बीबुल्ला गाते रहे, उसी के जलप्रवाह में भारतीय जीवन को पूरी तरह नहला देने की जरूरत है, ताकि सांप्रदायिकता की कीटाणुमिश्रित मैल धुल जाए।
सरकार सांप्रदायिकता के विषबीज बोनेवाली शिक्षण-संस्थाओं, राजनीतिक संगठना, प्रकाशनों और पत्रों पर रोक ही न लगाए, वरन् उनसे संबद्ध व्यक्तियों को दंडित भी करे। कछ साल पहले भारत सरकार ने उन्नीस दैनिकों तथा पाँच नियतकालिकों को सांप्रदायिक होने के कारण विज्ञापन देना बंद कर दिया था। प्यार की ऐसी हल्की चपत से ये दोषी माननेवाले नहीं। भारतवर्ष के प्रत्येक हिंदू और मुसलमान के मन में यह भाव बैठा देना पड़ेगा कि हिंदुस्तान सभी का है, सभी हिंदुस्तानी एक ही माता की कोख से जनमी संतान हैं।
जो केवल ‘हिंदूराज्य’ या मध्यकालीन ‘मुगलिया सलतनत’ का स्वप्न देखते हैं, वे महान अपराधी हैं। यह समय कितना सुहाना मालूम पड़ता है, जब हिंदू मुसलमान के ताजिए से कंधे लगाए दौड़ते हैं, फकीरों की दरगाहों पर मन्नतें माँगते हैं तथा मुसलमान सुहाग की चूड़ियाँ बेचते हैं, शहनाई बजाते हैं और विवाह के जोड़े में सजाकर हिंदू-दूल्हे को विवाह के लिए भेजते हैं। हिंदू-मुसलमान यदि दूध में शक्कर की तरह घुल-मिल पाएँ, तो हमारा राष्ट्रीय जीवन प्रफुल्लित-पुष्पित हो जाए।
संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया है लेकिन स्थिति का नकारात्मक पक्ष यह है कि धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना के बावजूद देश में अभी तक धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना नहीं की जा सकी है। विभिन्न धार्मिक समुदायों में संघर्ष का वातावरण यदाकदा चिंताजनक तनावों और अशांति को जन्म दे सकता है।
राजनीतिज्ञों का एक ऐसा वर्ग है जो धार्मिक तनावों का अपने हितों की पूर्ति हेत प्रोत्साहन देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे धार्मिक भावनाओं को उकसाकर वोट की राजनीति में शन्यलिप्त रहते हैं। पिछले दिनों सहारनपुर-भागलपुर में सांप्रदायिकता का जो तांडव नृत्य हआ वह हमारे लिए एक शोचनीय स्थिति है। देश में सांप्रदायिक सौहार्द की स्थापना में समाज के हर वर्ग के लोगों को योगदान देना चाहिए। साथ ही राजनीतिज्ञों को भी संयमित राजनीतिक आचरण का परिचय देना चाहिए।