
मेला पर निबंध- Mela Essay in Hindi
मेला ! सामूहिक जनजीवन के निर्बंध हर्षोल्लास का सुअवसर ! सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्मेलन का अद्भुत साधन, घर के संकीर्ण घेरे से उन्मुक्त विहार का रम्यांचल, बँधी-बँधाई जिंदगी के घेरे से पलायन का सुंदर स्थल, चिंताओं को चिता से उठकर आनंद के लोक में भ्रमण।
इसीलिए तो हमारे देश के हर भाग में समय-समय मेले लगते हैं। कभी पूर्णिमा का मेला है, तो कभी शिवरात्रि का मेला। कभी रथयात्रा का मेला है, तो कभी सोमवारी मेला। कभी प्रयाग में मेला लगा है, तो कभी हरिद्वार में, कभी उज्जैन में मेला लगा है, तो कभी राजगह में। हमारे राष्ट्र के जीवन की विरसता इन मेलों से दूर होती रहती है, यांत्रिक जीवन में एक कवित्वमय मधुरता आ जाती है।
किंतु, यहाँ चर्चा होगी हरिहरक्षेत्र के मेले की। इस विश्वप्रसिद्धं मेले को कौन नहीं जानता? अन्य क्षेत्रों में भले ही हमारे राज्य को संसार में सर्वप्रथम होने का गौरव न मिला है, किंतु हमारे यहाँ संसार का सबसे बड़ा मेला लगता है, इसका गौरव तो हमें प्राप्त है ही।
किंतु, यहाँ चर्चा होगी हरिहरक्षेत्र के मेले की। इस विश्वप्रसिद्ध मेले को कौन नहीं जानता? अन्य क्षेत्रों में भले ही हमारे राज्य को संसार में सर्वप्रथम होने का गौरव न मिला है, किंतु हमारे यहाँ संसार का सबसे बड़ा मेला लगता है, इसका गौरव तो हमें प्राप्त है ही।
यह मेला उत्तर-पूर्व रेलवे के सोनपुर स्टेशन-जो अपने विराट प्लेटफॉर्म के लिए विश्वविख्यात है-से पूरब लगता है। सगरपुत्रों का उद्धार करनेवाली गंगा, गजग्राह की कथा सुनानेवाली गंडकी तथा देवी सरस्वती के क्रीड़ास्थल शोणभद्र के संगमस्थल पर बसा यह परमपावन तीर्थ । कार्तिक पूर्णिमा के दिन संगमस्नान कर हरिहरनाथ के मंदिर में जल चढ़ाने के लिए अपार भीड़ उमड़ती है। किंतु, यहाँ इतने लोग केवल जल चढ़ाने के लिए नहीं आते, वरन् मेले का आनंद लूटने भी आते हैं। पूर्णिमा के एक सप्ताह पहले से ही मेला जुटना प्रारंभ हो जाता है और पंद्रह-बीस दिनों बाद तक रहता है।
हरिहरक्षेत्र का मेला बहुत बड़ा पशुमेला है। दस-पाँच वर्ष पहले गाय, बैल, घोड़े और हाथी इसके प्रमुख आकर्षण थे, किंतु जब से जमींदारी गई, शहरी सभ्यता में द्रुतगामिनी मोटरगाड़ी आई, हाथी के प्रति उदासी छा गई। इस त्वरा के युग में मंदगामी और व्ययसाध्य गजराज उपेक्षित हो गए। मेले में बिकने के लिए छोटे-छोटे जानवर भी आते हैं; जैसे-बकरियाँ, कुत्ते आदि।
मेले के समय करीब तीन मील घेरे की सुनसान भूमि गुलजार हो उठती है। जहाँ शायद ही एक-दो दीए टिमटिमाते हों, वहाँ बिजली की चाँदनी छिटक उठती है। जहाँ खोजने-ढूँढ़ने पर कभी एक-दो भूले-भटके बटोही मिल पाते हों, वहाँ आदमियों की बाढ़ आ जाती है। जहाँ पेड़ों के झुरमुटों में सदा चिड़ियों की टी-वी-टुट-टुट सुनाई पड़ती थी, वहाँ लाउडस्पीकरों की अट्टध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। दूर-दूर तक तने तंबू-शामियाने ऐसे लगते हैं, मानो किसी राजा की नई राजधानी बसने जा रही हो। लगता है कि देहाती वेश में कलकत्ता की चौरंगी या बंबई की चौपाटी आ गई हो।
कहीं मिठाइयों की सजी-धजी दुकानें हैं, तो कहीं कपड़ों की। फैशन की रंग-बिरंगी चीजें दर्शकों के झुंडों को अपनी ओर खींचती हैं। कहीं सिनेमा हो रहा है, तो कहीं सर्कस। कहीं यमपुरी नाटक है, तो कहीं बंगाल का जादू। राज्य के कोने-कोने से विशेष रेलगाड़ियों और बसों पर आदमी लदे आ रहे हैं और लगता है सारा राज्य यहीं सिमट आएगा। मेले में जिधर देखिए, उधर रंगीनी-ही-रंगीनी नजर आती है। लोग धक्के-पर-धक्के दिए जा रहे हैं, धक्के-पर-धक्के खाए जा रहे हैं। यहाँ पाकिटमारों की बन आती है। यदि आदमी सावधान न रहे, तो क्षण में ही जेब कट जाए।
वैसे, मेले अन्य जगहों पर भी लगते हैं, किंतु यह मेला सब मेलों में निराला है। अन्य मेलों को मनुष्य सिनेमा के गीत की तरह भले ही भूल जाए, किंतु जिसने हरिहरक्षेत्र मेला को एक बार देखा, वह आजीवन इसे भूल नहीं पाएगा।