
मनोरंजन के साधन पर निबंध | Essay on Means of Entertainment in Hindi
सुबह से शाम तक मशीन की तरह काम करते-करते तन ही नहीं थकता, बल्कि मन भी थककर चूर हो जाता है। इतना ही नहीं, एक ही तरह का काम लगातार करते रहने के कारण उस काम के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है, एकरसता आ जाती है, एक ऊब-एक बोरडम पैदा हो जाता है। शैथिल्य, श्रांति तथा उबाऊपन दूर करने के लिए आवश्यक है कोई-न-कोई मनोरंजन —ऐसा कार्य, जिसमें मन का रंजन होता हो, प्रसादन होता हो, विनोद होता हो। अतः, मनोरंजन के ऐसे साधन चाहिए,जो यांत्रिक गतानुगतिक जीवन में रुचिकर परिवर्तन उपस्थित करते हो।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि मनोरंजन मानव-जीवन के लिए कितना आवश्यक है। वह हमारे जीवन-यंत्र को गतिशील रखने के लिए ग्रीज है, जीवन की जीवन की क्षुदा बढ़ानेवाला चूर्ण है, जीवन के बिरवे को पनपाने के लिए सिंचन है तथा जीवन की पहाड़ी चढ़ाई के लिए ताजा ऑक्सीजन है।
अत्यंत प्राचीन काल से मनुष्य के प्राण मनोरंजन के लिए मचलते रहे हैं। वह सदा उसके लिए साधनों का अनुसंधान करता रहा है। आदिम युग के मनुष्य के जीवनयापन और मनोरंजन का साधन आखेट ही था। मध्ययुग में नखकर्तन, हस्तरंजन, केशविन्यास, तीतरबाजी, पतंगबाजी, मेढ़े लड़ाना आदि मनोरंजन हुए; किंतु इस आधुनिक कार्यसंकुल वैज्ञानिक युग के मनोरंजन का सबसे सस्ता और सुलभ साधन चलचित्र हो गया है। शहरों में तीसों दिन दो-दो, तीन-तीन शो चलचित्र दिखाए जाते हैं।
दो-तीन घंटे तक वहाँ बैठकर कथा-वार्तालाप, नृत्य-गीत आदि का आनंद लिया जाता है। यात्रिक जीवन का बँधा तार थोडी देर के लिए टटता है. मन पर लदा परेशानियों का बोझ थोड़ी देर के लिए खिसक जाता है, चिंताओं की चट्टान थोडी देर के लिए टूट जाती है।
इसी प्रकार, मनोरंजन के अन्य साधनों में ग्रामोफोन, रेकार्ड-प्लेयर, रेडियो, ज्यूक-बॉक्स, रेडियोग्राम, ट्रांजिस्टर, टेलीविजन आदि हैं। मन ऊब गया है, काम करने में जी नहीं लगता है। यदि गीत या वाद्य का रेकार्ड थोड़ी देर के लिए सुन लें, तो मन बिलकुल हलका हो जाता है और फिर हम मुस्तैदी से काम में जुट जा सकते हैं।
शहरों में कभी-कभी जाद का खेल दिखाया जाता है। दो-तीन घंटे के उस शो में हम अजीबोगरीब विस्मयकारी इंद्रजाल की दुनिया का सैर-सपाटा करते रहते हैं। एक-से-एक रोमांचकारी घटनाएँ दिखाई जाती हैं। अभी एक लड़की बक्से में बंद कर दी गई और दो मिनट में गायब, अभी एक हाथ की अंगठी किसी दूसरे हाथ में चली गई; अभी एक नोट के सौ टुकड़े जोड़कर एक कर दिए गए; अभी आरे से चीरी गई लड़की मुस्कराने लगी-तरह-तरह के आश्चर्यजनक दृश्यों से पूरा मनबहलाव होता है। इसी तरह, शहरों में सर्कस आते रहते हैं। एक पतले तार पर कभी लड़की साइकिल चला रही है, तो कभी कोई चालक गोल घेरे में मोटरसाइकिल चला रहा है। कभी एक तिपाई पर गजराज बैठ गए हैं, तो कभी बिजली की छड़ी के डर से वनराज म्याऊँ-बिल्ली बने हुए हैं।
मनोरंजन के साधनों में अंतःकक्षीय तथा बहिःकक्षीय अनेक खेल हैं। अंतःकक्षीय (indoor) खेलों में ताश, शतरंज, कैरम, टेबुल-टेनिस, बिलियर्ड आदि आते हैं। बहिःकक्षीय (outdoor) खेलों में फुटबॉल, वॉलीबॉल, बास्केटबॉल, हॉकी, क्रिकेट, टेनिस, पोलो, स्केटिंग आदि हैं। बहुत लोग इन खेलों से आनंद प्राप्त करते हैं। फुटबॉल, क्रिकेट तथा रेस देखने के लिए अग्रिम टिकट कटाने पड़ते हैं और उनके टिकट ब्लैक में मिला करते हैं। इन खेलों में कुछ लोग इतने दीवाने होते हैं कि वे दिल्ली, बंबई और कलकत्ता से कानपुर तक की यात्रा केवल इसी के लिए किया करते हैं। इसके अतिरिक्त, प्रदर्शनी, क्लब, झील, नदी, पार्क, मेला, पहाड़ी, वन तथा सागरतट पर घूमकर भी मनोरंजन किया जाता है। संगीत, नृत्य के आयोजनों से भी पर्याप्त मनोरंजन होता है।
गाँवों में मनोरंजन के विभिन्न साधन हैं—यात्रा, रामलीला, विदेशिया, नौटंकी, कीर्तन, रामायणपाठ। किंतु, गाँवों में नियमित रूप से इनका आयोजन नहीं होता, साल में कभी-कभी इस प्रकार के मनोरंजन का आयोजन किया जाता है।
पढ़े-लिखे व्यक्तियों के लिए पत्र-पत्रिकाएँ तथा पुस्तकें मनोरंजन के अच्छे साधन हैं। वे उपन्यास, यात्रावृत्तांत, जीवनी, कविता आदि से मनोरंजन करते हैं। इससे ज्ञानवर्धन तो होता ही है, मानवीय समस्याओं को समझने का अवसर तो मिलता ही है, मानवीय अनुभूतियों को परखने का मौका तो हाथ लगता ही है, साथ-ही-साथ बड़ी. उत्कृष्ट कोटि का मनोरंजन भी होता है।
प्रत्येक राज्य सरकार को चाहिए कि वह मनोरंजन के नवीनतम साधन विकसित करे, ताकि देश के नागरिकों के व्यस्त शुष्क जीवन की मरुभूमि में थोड़ी देर के लिए हरियाली मिल जाए।
अतः, जीवन में सतत स्फूर्ति, एकरसता का निराकरण, गतिशीलता एवं दीर्घायुष्य के लिए मनोरंजन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। किंतु, मनोरंजन को हमें औषधि. या कलेवा के रूप में स्वीकार करना चाहिए, पूर्ण भोजन के रूप में नहीं; इसे अल्पविराम के रूप में स्वीकार करना चाहिए, पूर्णविराम के रूप में कभी नहीं।