
Hindi essay topics-वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में मूल्यपरकता की आवश्यकता
“शिक्षा का मतलब केवल पढ़ना-लिखना सीख लेना ही नहीं है। इसका मतलब है, व्यक्तित्व का विकास। इसके बिना मनुष्य उन्नति की चोटी पर नहीं पहंच सकता।” -स्वेट मार्डेन
उपर्युक्त कथन में स्वेट मार्डेन ने जिस बात पर बल दिया है, वह शिक्षा में मूल्यपरकता से ही अभिप्रेत है। वस्तुतः मूल्यपरक शिक्षा ही सच्ची शिक्षा होती है, जो कि हमारे व्यक्तित्व को गढ़ने का काम करती है। यही वह शिक्षा है, जो हमारे व्यक्तित्व को विकसित कर हमें शीर्ष पर ले जाती है, संघर्ष और साहस प्रदान कर विपरीत परिस्थितियों से उबर कर अपनी सक्षमता को साबित करने का हमें हुनर प्रदान करती है, हमें स्वावलंबी बनाती है, तो दूसरों को भी आगे बढ़ाने की सीख प्रदान करती है। यही वह शिक्षा है जो हमें जीवन मूल्य प्रदान करती है, हमें चरित्रवान बनाती है।
दुख का विषय है कि हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में जहां मूल्यपरकता का नितांत अभाव है, वहीं इससे जुड़ी दूसरी विसंगतियां भी कम नहीं हैं। आज की शिक्षा सिर्फ साक्षर बनाने एवं डिग्रियां बांटने तक ही सीमित होकर रह गई है। यानी यह वह थोथी शिक्षा सिद्ध हो रही है, जिसमें मूल्यपरकता जैसा शिक्षा का प्राण-तत्व ही नदारद है। यह सद्गुणों की वह शिक्षा नहीं है, जो सांसारिक कठिनाइयों के पार हमें लगा सके, परहित की भावना से हमें भर सके, समाज व राष्ट्र के प्रति हमें जिम्मेदार और समर्पित बना सके, हमारे व्यक्तित्व का समग्र विकास कर सके तथा हमारे परिवेश को समृद्ध बना सके। मूल्यपरकता के अभाव में हमारी वर्तमान शिक्षा ने अपने वास्तविक अर्थ को ही खो दिया है।
हमारी वर्तमान शिक्षा में सिर्फ मूल्यपरकता का ही अभाव नहीं है, बल्कि इससे जुड़ी अन्य अनेक विसंगतियां भी हैं। यथा-‘शिक्षा का अधिकार’ कानून प्रभावी होने के बाद भी शतप्रतिशत बच्चे स्कूल तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। स्कूल तक न पहुंच पाने वाले बच्चे उस गरीब और वंचित तबके के हैं, जो दो जून की रोटी का जुगाड़ बमुश्किल कर पाता है या कभी-कभी उसे भूखे पेट ही सोना पड़ता है। हमारी वर्तमान शिक्षा में रोजगारपरकता का भी अभाव है, क्योंकि इसमें कौशल विकास के व्यावहारिक पक्ष की अनदेखी की गई है। सबसे त्रासद स्थिति तो यह है कि आज की शिक्षा व्यवस्था में जबरदस्त दोहरापन देखने को मिल रहा है। यानी सरकारी शिक्षा और निजी शिक्षा के बीच जमीन-आसमान का फर्क देखने को मिल रहा है। एक तरफ तो सरकारी शिक्षा का सड़ा-गला और जर्जर ढांचा है, तो दूसरी तरफ निजी शिक्षा पर पांच सितारा संस्कृति तारी हो रही है। हमारी सनातनी संस्कृति में जिस शिक्षा को लोकहित में बांटने की परम्परा थी, उसे निजी शिक्षा ने बिकाऊ बना दिया है। शिक्षा की महंगी दुकानें खुल गई हैं और सामर्थ्यवान इसे भरपूर कीमत चुकाकर खरीद रहे हैं। जाहिर है, ऐसी शिक्षा एक हद तक जीविका के उद्देश्य को तो पूरा कर सकती है, जीवन के उद्देश्यों को कदापि नहीं। यहां यह कहना असंगत न होगा कि वर्तमान शिक्षा से जुड़ी विसंगतियां भी शिक्षा में मूल्यपरकता के अभाव से उत्पन्न हुई हैं।
जब शिक्षा में मूल्यवत्ता नहीं होती है, तो उसमें गुणवत्ता भी नहीं आ सकती। यही कारण है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था के कट्टर आलोचक थे। उनका मानना था कि मौजूदा शिक्षा प्रणाली न तो आजीविका के समुचित साधन प्रदान करती है और न ही शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक व आचारिक प्रतिभाएं विकसित करने का उद्देश्य रखती है। बापू ने कहा था कि समाज-व्यवस्था और शिक्षा का एक-दूसरे से घनिष्ठ संबंध है। शिक्षा लोगों को एक उद्देश्य के लिए तैयार करती है तथा अधिक न्यायोचित समाज व्यवस्था स्थापित करती है।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को सार्थकता प्रदान करने के लिए – आवश्यक है कि इसमें मूल्यपरकता का समावेश किया जाए तो इससे जुड़ी विसंगतियों को दूर किया जाए। यह काम शिक्षा के प्रारंभिक से लेकर उच्च स्तर तक होना चाहिए। शिक्षा को मूल्यपरक बनाने के लिए पहली जरूरत तो यह है कि हम इसमें उस नैतिक शिक्षा का समावेश अभिन्न रूप से करें, जो शिक्षार्थी को राष्ट्र और समाज के प्रति जिम्मेदारी का बोध कराए, उसमें अच्छे नागरिक गणों को विकसित करे, उसका चारित्रिक विकास करे, उसे अधकचरा नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ज्ञान प्रदान करे तथा उसे वह संबल प्रदान करे, जो सांसारिक जीवन की कठिनाइयों से उबरने में सहायक सिद्ध हो। इसके लिए हमें अच्छे और चरित्रवान शिक्षक भी तैयार करने होंगे। स्वामी विवेकानंद ने यह अकारण नहीं कहा था कि मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली प्रक्रिया का नाम ही शिक्षा है। हमें इसी प्रक्रिया के रूप में शिक्षा को धरातल प्रदान करना होगा।
यहां यह रेखांकित करना समीचीन रहेगा कि शिक्षा को मूल्यपरक बनाकर हम एक समृद्ध परिवेश का निर्माण कर सकते हैं। यह समृद्ध परिवेश हमारे लिए अत्यंत सहायक एवं सकारात्मक सिद्ध हो सकता है, क्योंकि बच्चा अपने परिवेश से बहुत कुछ सीखता है। वर्तमान शिक्षा के नीरस और उबाऊ स्वरूप को देखते हुए यह भी आवश्यक है कि शिक्षा को कुछ इस तरह से रुचिकर और आनंददायक बनाया जाए कि वह बच्चे को बोझ न लगे, बल्कि उसे इसमें आनंद का अनुभूति हो। इसके लिए हमें उस शिक्षा प्रणाली पर केन्द्रित होना होगा, जिसमें अकादमिक एवं क्रियात्मक गतिविधियां बराबर-बराबर से शामिल हों। हमें शिक्षा को कुछ ऐसा संस्पर्श भी देना होगा, जो बच्चों में जिज्ञासा को बढ़ाए। जब बच्चे जिज्ञासु बनेंगे, तो उनमें शोध, अनुसंधान एवं पड़ताल की ललक भी बढ़ेगी। वे अधिक निरीक्षण करेंगे, अधिक अनुभव करेंगे एवं अधिक अध्ययन भी करेंगे। स्मरण रहे कि केथराल ने इन्हीं तीनों को शिक्षा के आधार स्तंभों के रूप में अभिहित किया है।
शिक्षा को मूल्यवत्ता एवं गुणवत्ता प्रदान करने के लिए इससे जुड़ी विसंगतियों को भी दूर किया जाना आवश्यक है। पहली जरूरत तो यह है कि शिक्षा केन्द्रों को ज्ञान के मंदिरों के रूप में विकसित किया जाए, न कि डिग्री बेचने वाली दुकानों के रूप में। इसके लिए जहां सभी के लिए शिक्षा के एक समान अवसर विकसित करने होंगे, वहीं शिक्षा के निजीकरण एवं व्यवसायीकरण को भी रोकना होगा। यह तभी संभव है, जब हम शिक्षा के सरकारी तंत्र को ढर्रे पर लाएं। शिक्षा को रोजगारपरक बनाए जाने की भी जरूरत है। इसके लिए जहां कौशल विकास पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है, वहीं शिक्षण के साथ प्रशिक्षण को भी जोड़ना होगा। इस मांग को ध्यान में रखते हुए हमें योग्य और प्रशिक्षित शिक्षकों को भी तैयार करना होगा, जो कि अद्यतन सूचनाओं, तकनीकों एवं जानकारियों से लैस रह कर कार्यशालाओं में अपने शिक्षार्थियों को पारंगत और निपुण बना सकें।
शिक्षा सभी की पहुंच में हो, हमें ऐसे उपाय भी सुनिश्चित करने होंगे। आज तमाम सरकारी प्रयासों एवं शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद हम शत-प्रतिशत शिक्षा का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाए हैं। गरीब और वंचित तबकों के बच्चे आज भी शिक्षा से दूर हैं। शिक्षा का दायरा बढ़ाने के लिए हमें सिर्फ स्कूली शिक्षा तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। इसके लिए हमें सचल शिक्षा की ओर कदम बढाते हए ‘शिक्षा आपके द्वार’ की अवधारणा को साकार करना होगा। यह काम शिक्षण-प्रशिक्षण की सुविधाओं से सुसज्जित सचल मोबाइल वैनों के जरिए बखूबी किया जा सकता है। शिक्षा का दायरा बढ़ाने की यह एक व्यावहारिक एवं सार्थक पहल हो सकती है।
वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को जितना मूल्यपरक बनाए जाने की आवश्यकता है, उतनी ही आवश्यकता इसकी विसंगतियों को दूर किए जाने की भी है, क्योंकि विसंगतियों के साथ रहने पर मूल्य असमर्थ हो जाते हैं। यदि वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को हम मूल्यपरकता से आच्छादित न कर पाए, तो इसके भयावह परिणाम भी हमें भुगतने पड़ सकते हैं। यह पहल फौरन से पेश्तर होनी चाहिए। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम शिक्षा के सही अर्थ को समझते हुए उसके अनुरूप शिक्षा व्यवस्था एवं शिक्षा प्रणाली को विकसित और व्यवस्थित करें। मुंशी प्रेमचंद ने कर्मभूमि में शायद इसी तरफ संकेत किया है- “जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है-हमारा सेवाभाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सफलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागृत न हुई, तो कागज की डिग्री व्यर्थ है।”