
भूत की डरावनी कहानियाँ-पीछे पड़ गया जिन्न
यह आज से दस साल पहले की बात है। उस समय मैं नमाज, रोजे की कतई पाबंद नहीं थी। नमाज तो कभी-कभार अपनी दादी और अम्मा की नसीहतों की वजह से पढ़ लिया करती थी, लेकिन रोजे रखने में सदा डंडी मार जाया करती थी। मजहब केवल कुछ मजहबी किताबों तक ही सीमित था। दादी मेरी लापरवाहियों और मजहब से दूरी पर मुझे टोकतीं, तो मैं एक कान से सुनकर दूसरे कान से उनकी नसीहतों को उड़ा देती। शायद यह सिलसिला आज तक बरकरार रहता, अगर छुट्टियों के दौरान मुझे अपनी छोटी खाला के घर डेरा गाजी खां न जाना पड़ता।
छोटी खाला के शौहर खासे सख्त आदमी थे, इसलिए उनके घर रिश्तेदार कम ही आया करते थे। इस बार अंकल कारोबार के सिलसिले में दूसरे शहर गए हुए थे, इसलिए खाला ने मुझे फोन करके आने का मशविरा दिया। मेरी छुट्टियां थीं ही। लिहाजा, बड़े भाई के साथ खाला के घर जाने को तैयार हो गई। हालांकि अम्मा ने यह कहकर डराया भी कि निगहत का घर भुतहा है। तुम एक दिन भी वहां नहीं बिता सकोगी।
अम्मी की बात मैंने हंसी में उड़ा दी थी और उलटे यह कहा था, “अगर खाला का घर भुतहा है, तो वह वहां रह क्यों रही हैं?”
“अरी बदबख्त! जिन्नात जिससे खुश होते हैं, उसे कभी तंग नहीं करते।” वह चिढ़कर बोलीं।
“बेफिक्र रहें अम्मा! मैं भी उन्हें डिस्टर्ब नहीं करूंगी, और अच्छे लगे, तो दोस्ती कर लूंगी।” मैंने चहककर कहा, जिस पर अम्मा झुंझलाकर रह गई थीं।
हां, तो मैं बता रही थी कि मैं भाई के साथ डेरा गाजी खां खाला के घर चली गई। खाला का घर काफी बड़ा था। उनके दो बच्चे थे। मुझे देखकर खाला बहुत खुश हुईं। भाई मुझे वहां छोड़कर अगले दिन ही कराची चले गए। वहां दो दिन बड़े मजे में बीते। इस दौरान अम्मा की (जिन्न-भूत वाली) बात याद करके मुझे हंसी आती रही। आखिर मैंने खाला से कहा, “मालूम है, खाला, अम्मा क्या कह रही थीं?”
“क्या कह रही थीं बाजी?” उन्होंने भी दिलचस्पी ली। “फरमा रही थीं कि आपका घर भुतहा है, मैं दो दिन भी वहां नहीं बिता सकूँगी।”
“कह तो बाजी ठीक रही थीं।” उन्होंने संजीदगी से जवाब दिया। “वाकई यह घर भुतहा है?” मैंने हैरानी से पूछा।
“हां मीना, यह सच है। यह हमारी सास का पुश्तैनी घर है,” खाला ने गहरी सांस लेकर बताया, “जब मैं यहां ब्याहकर आई थी तो सास ने मुझे सख्ती से ताकीद की थी कि कोने वाले कमरे को हमेशा साफ-सुथरा रखना और उसमें कभी कोई सामान न रखा जाए।”
“आपने कभी महसूस किया कि आपकी सास ठीक कहती थीं, यानी कि आपने उस कमरे में कभी कोई अलौकिक जीव या किसी जिन्न वगैरह को देखा है?”
“नहीं, मैंने कभी किसी को नहीं देखा, न कोई गैर मामूली बात महसूस की, हालांकि मेरी शादी को सात साल हो चुके हैं।” उन्होंने आश्वस्त स्वर में बताया।
“हो सकता है, यह आपकी सास का वहम हो?” “हो भी सकता है, लेकिन मीना, जिन्नात के वजूद से इनकार तो नहीं किया जा सकता।”
“यह सब पुरानी बातें हैं, खाला। इस दौर में इनका वजूद नामुमकिन लगता है।” मैंने कंधे उचकाते हुए लापरवाही से कहा।
उसी शाम खाला शॉपिंग के लिए बाजार गईं, तो मैं नहाकर बालों को सुखाने के लिए छत पर चली गई। वह शाम के बाद का समय था और अंधेरा फैलना शुरू हो चुका था। छत पर चारों ओर रंग बिरंगे फूलों के गमले रखे थे। मोतिया और गुलाब की खुशबू से छत महक रही थी। मैंने गहरी-गहरी सांसें लेकर खुशबू को अपने अंदर उतारा और बालों को झटककर ब्रश करने लगी। थोडी देर ही गजरी थी कि मुझे अपने चेहरे पर किसी की नजरों की तपिश का एहसास हुआ। मैंने बेइख्तियार इर्द-गिर्द नजर दौड़ाई कि हो सकता है कि कोई अपनी छत से ‘नजारा’ कर रहा हो, लेकिन यह खयाल मूर्खतापूर्ण था। उस गली में सिर्फ खाला का घर ही दोमंजिला था, बाकी सारे घर एकमंजिला थे, इसलिए किसी के देखने का सवाल ही पैदा नहीं होता था। मैंने इस बात को अपना वहम समझा और रुख मोड़कर बालों को सुलझाने लगी। इस काम से फारिग होकर मैंने बालों को पीठ पर खुला छोड़ा और रेलिंग से लगकर सड़क से आते-जाते लोगों को देखने लगी। तभी मुझे अपने बालों पर कुछ दबाव-सा महसूस हुआ। मैं चौंककर मुड़ी, तो छत खाली थी। इस बात को मैं अपना वहम करार नहीं दे सकती थी, क्योंकि मुझे वह दबाव बखूबी महसूस हुआ था। यों लगा था, जैसे किसी ने धीरे से मेरे बालों पर हाथ रखा हो और उन्हें हाथ में लेकर महसूस किया हो। मैंने सोचा, कहीं गुड्ड तो यह शरारत नहीं कर रहा। मुझे पांच वर्षीय शरारती खालाजाद गुड का खयाल आया, जो अचानक इसी तरह डराया करता था और फिर छप जाता था। मैं छत पर बने उस कमरे की ओर बढ़ी, जिसमें खाला ने बेकार चीजें डाल रखी थीं। दरवाजा खोलने पर अंदर का अंधेरा कछ कम हुआ, तो मैंने उसे आवाज दी , गुड़ू। लेकिन जब उसकी ओर से जवाब न मिला, तो आगे बढ़ी और कमरे में दाखिल हो अचानक दरवाजा धड़ से मेरे पीछे बंद हो गया। मैं भय से जड़वत् खड़ी रह गई। हजारों आशंकाएं और वहम मुझे डराने लगे।
खैर, किसी तरह दरवाजा खोलकर बाहर आ गई। बाहर आकर मुझे अंदाजा हुआ कि मैं पसीना पसीना हो रही थी। दहशत से कांप भी रही थी। मैं भागती हुई नीचे आ गई। खाला अभी तक बाजार से आई नहीं थीं। मैं कुरसी पर अधलेटी होकर अपने बिखरे हवास को जमा करने लगी। जब हवाय बहाल हुए, तो मुझे अपनी बुजदिली पर सख्त अफसोस हुआ। मैं इतने कच्चे जेहन की मालिक तो न थी कि दरवाजा बंद होने पर फौरन जिन्न-भूत पर यकीन कर बैठती।
‘हो सकता है कि दरवाजा हवा से बंद हुआ हो।’ मेरे दिल ने अनुमान लगाया और मेरा जेहन फौरन इस बात पर ईमान ले आया कि यही बात हो सकती है। मैं इस मामूली बात से डर गई। अगर अक्ल इस्तेमाल न करती, तो इस वहम में ग्रस्त हो जाती कि जिन्नात वगैरह का वजूद होता है।
‘नॉनसेंस।’ मैं अपनी बेवकूफी पर हंसने और खुले बालों में बल डालने लगी। उसे आगे करके ज्यों ही मैंने और बल देना चाहे, तो मुझे अपने बालों से बेहद दिलफरेब खुशबू आती हुई महसूस हुई। मैंने उस खुशबू को करीब से महसूस करने के लिए ज्यों ही बाल आगे किए, तभी घंटी बजी। खाला के आगमन का एहसास करके मैं बालों को पीछे छोड़कर दरवाजे की ओर बढ़ गई। बाद में उनकी बातों में गुम होकर मुझे उस खुशबू का खयाल ही न रहा, जो मेरे बालों में से आ रही थी।
उसी रात अचानक मेरी आंख खुल गई। मैंने सफेद लिबास में किसी को अपने बेड के करीब से गुजरते देखा। चूंकि कच्ची नींद का खुमार था और फिर लाइट भी ऑफ थी, इसलिए जब मैंने लाइट
ऑन करके अपने शक को यकीन में बदलना चाहा, तो कमरा खाली था। मैंने बराबर वाले कमरे में झांककर देखा। खाला गुड्ड के साथ सो रही थीं। मैं उलझती हुई वापस आकर लेट गई और अपने शक को वहम करार देते हुए लाइट ऑफ किए बिना सो गई।
खाला ने मुझसे कहा, “मीना, मेरे साथ कासिम बाबा के घर चल रही हो?” “कासिम बाबा? यह कौन हैं ?” मैंने जिज्ञासु नजरों से उनकी ओर देखा।
“बहत पहुंचे हुए बुजुर्ग हैं । अल्लाह के नाम पर सबका मुफ्त इलाज करते हैं। बरसों में एक बार अपने घर आते हैं। सात साल पहले जब मेरी शादी हुई थी, तब आए थे। अल्लाह वाले हैं। मेरी ननद की बेटी का इलाज भी वही कर रहे हैं।” उन्होंने बताया।
“नजमा बाजी की बेटी को क्या हुआ?’ मैंने फरहीन के बारे में पूछा। “कहते हैं, उस पर किसी जिन्न का साया है।” “खाला, आप भी कैसी दकियानूसी बातें करती हैं। जिन्न-भूतों के पास क्या बहुत फालतू वक्त होता है, जो हर एक पर आते रहते हैं।” मैंने मजाक में उनकी बात टालनी चाही।
“मीना, हर वक्त का मजाक अच्छा नहीं होता।” खाला मेरे शब्दों पर रुटता से बोली। “सॉरी खाला! अच्छा यह बताइए कि क्या वाकई कासिम बाबा बहुत पहुंचे हुए बुजुर्ग हैं ?” “तुम मेरे साथ चलो, खुद ही देख लेना।” उन्होंने कहा।
“मुझे तो बस माफ ही रखें, खाला! वैसे भी मैं जिन्नात वगैरह पर यकीन नहीं रखती। यह सब हमारा वहम होता है और कुछ नहीं।” मैंने लापरवाही से कहा।
“हर कोई धोखेबाज नहीं होता, मीना! बहुत से अल्लाह वाले बुजुर्ग भी होते हैं। सबसे बदगुमान होना अच्छी बात नहीं होती।” उन्होंने जाने से पहले कहा।
उनके जाते ही मैंने जो थोड़ा-बहुत काम रह गया था, वह पूरा किया, और जैसे ही मैंने हाथ धोने के लिए साबुन उठाया, वह मेरे हाथ से फिसलकर नीचे गिर पड़ा। जिस समय मैंने उसे उठाया था, वह गुलाबी रंग का था, लेकिन गिरते ही उसका रंग हरा हो गया। मैं अविश्वासी नजरों से साबुन को घूरने
लगी।
“गुड़ू …गुड़ू ..।” मैंने बेइख्तियार भयभीत होकर आवाजें दी, तो वह दौड़ा चला आया।
“क्या हुआ आपा?” गुड्ड ने मेरा आंचल पकड़कर घसीटा, तो मैंने उसकी ओर देखा, “यह…यह साबुन हरा है न?”
“नहीं, यह तो गुलाबी है।” गुड्डु ने साबुन उठाकर मेरी नजरों के सामने किया और भय की एक सर्द लहर मेरे वजूद में दौड़ने लगी। साबुन सचमुच गुलाबी था।
“लेकिन…अभी तो यह…।’ मैं चाहते हुए भी अपने भय को प्रकट न कर सकी और हाथ धोकर उसके साथ कमरे में चली आई।
‘निगहत का घर भुतहा है।’ मुझे अम्मा की बात याद आई।
‘अम्मा, यह सब बकवास है। कोई जिन्न-भूत वगैरह नहीं होते। यह सब हमारे जेहन का फितूर होता है।’ मुझे अपना जवाब भी याद आ गया।
‘वह साबुन गिरने के बाद वाकई हरा हुआ था या फिर मेरी नजरों का धोखा, या जेहन का फितूर था, जिसने मुझे खौफ में मुब्तिला कर दिया था,’ मैंने सोचा।
“मीना!” खाला ने यूं ही मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैं जो अपने खयालों में गुम, तब से इसी मसले पर सोच रही थी, उनके इस तरह हाथ रखने पर उछल पड़ी।
“क्या हुआ? यह तुम्हारा रंग क्यों बदल रहा है?” खाला ने चिंता से पूछा।
“कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं हुआ खाला! मैं कुछ सोच रही थी।” मैंने नॉर्मल होते हुए उन्हें आश्वस्त करना चाहा। वह भी अपनी बातों में लग गईं और कासिम बाबा के घर आए लोगों के बारे म बताने लगी। साथ ही साथ उनके कसीदे भी पढ़ने लगीं कि उनके इलाज से कितने लोग निरोग हुए थे। वह एक सप्ताह बाद जाने वाले थे।
रात को मुझे एक पत्रिका पढ़ते-पढ़ते दो बज चुके थे। मैं पानी लेने के लिए कमरे से बाहर जात किचन में जाने के लिए मुझे बरामदे से गुजरना था, जिसमें ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थी मैं अपनी ही सोचों में गुम ज्यों ही किचन की ओर बढ़ी, उसी समय जैसे बरामदे की सीढियों वाली दीवार किसी ने इस तरह जोर से बजाई, जैसे मेरा ध्यान आकृष्ट करने के लिए यह हरकत की गई हो। भय और दहशत के मारे मैं पलटकर भागी और कमरे में जा घुसी। मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था। पैरों से जैसे जान निकली जा रही थी। मैं दरवाजे से लगकर कांपने लगी। खाला और उनके बच्चे के अलावा उस घर में और कौन था, जो यह हरकत करता-वह भी आधी रात के समय। अब मेरा शक यकीन में बदलता जा रहा था कि जिन्नात का वजूद है। अम्मा और दादी की सभी बातें सच महसस हो रही थी और वहम दूर खड़ा हंस रहा था।
सुबह इस बात का जिक्र मैंने खाला से नहीं किया। जिक्र करती भी किस मुंह से, कि मैं खुद ही उनके वजूद से मुकर थी और उन बातों को दकियानूसी, दिमाग का फितूर, वहम करार देती थी। अब जिक्र करने से साफ जाहिर था कि मैंने उनके वजूद को स्वीकार कर लिया है।
जब से मेरा शक वहम के पड़ाव तय करता हुआ यकीन तक जा पहुंचा था, तब से मैं कुरानी आयत जरूर पढ़ा करती थी। खासतौर पर सोने से पहले। दादी अकसर कहा करती थीं, यह कुरानी आयतें इंसान को हर बला से महफूज रखती हैं।
रात सपने में मैंने देखा कि मैं उसी आखिरी कमरे में खड़ी हूं, जिसका जिक्र खाला ने किया था। मैं उस कमरे से निकलने की जद्दोजहद में विभिन्न कमरों को खोलती, बंद करती, आगे और आगे बढ़ती चली जा रही हूं। तभी कोई मेरा हाथ थामकर कहता है, ‘असल रास्ता वह है’ और उसके हाथ थामते ही जैसे मैं हर भय से मुक्त हो जाती हूं। वह मेरा हाथ थामकर मुझे रोशनियों के रास्ते पर ले आता है।
“तुम कौन हो?” मैं जाने से पहले पलटकर उससे पूछती हूं। “तुम्हारा साया।” उसकी आवाज सरगोशी में बदल जाती हैं। “साया तो साथ-साथ चलता है।”
“मैं भी तो तुम्हारे साथ हूं।” उसके होंठों की हसीन मुस्कराहट पर मेरा दिल तेजी से धड़कने लगता है।
जब मेरी आंख खुली, तो उस समय मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था। मैं पसीने में नहाई हुई थी, जैसे वजूद से आग-सी निकल रही हो। मैंने आंचल से पसीना साफ करते हुए घड़ी पर नजर डाली। सुबह के चार बज रहे थे।
यह कैसा अजीब ख्वाब था?’ मैंने बेखयाली में हाथ से आंखों को मसला, तो हाथ से आती सम्मोहक और जानी-पहचानी खुशबू पर चौंक उठी। यह वही खुशबू थी, जो मैंने पहली बार अपने बालों में महसूस की थी और जो अब मेरे सीधे हाथ से आ रही थी। मुझे याद आया कि ख्वाब में मेरे सीधे हाथ को उस अजनबी ने पकड़ा था, ‘यह…यह…खशब…वह खुशबू…इनका आपस म मा ताल्लुक हो सकता है ?’ मैं सोचने लगी, लेकिन साइंस तो यह कहती है कि ख्वाब हमारी अधूरी ख्वाहिशों के अवचेतन में पहुंचने के कारण वजूद में आते हैं। फिर यह सब क्या है ? साइंस झूठी है, या वाकई इस दुनिया में जिन्नात का वजूद है?’
मुझे याद आया, रात मैं किताब पढ़ते-पढ़ते सो गई थी, लेकिन उस समय वह किताब सामने सेल्फ पर रखी थी। मुझे वह अजनबी याद आया, जो ख्वाब में नजर आया था। बेहद हसीन । उसकी आंखों की चमक चुंधिया देने वाली थी। एकदम सम्मोहक आंखें, जिन्हें देखकर इंसान सम्माहित हा जाए। होंठों पर बिखरी वह खूबसूरत मुस्कराहट, जो किसी भी इंसान को दीवाना बना दे। न जाने वह वाकई इतना हसीन था, या फिर उसके मामले में मेरे ही जज्बात भडक रहे थे। वह पहला शख्स था, जिसके बारे में इस तरह जज्बाती होकर सोच रही थी और फिर न जाने कब मेरी आंख लग गई। सुबह उठी, तो मेरी तबीयत बोझल-बोझल-सी थी और आंखें भी सुर्ख हो रही थीं।
“मीना, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?” खाला ने मेज पर नाश्ता सेट करते हुए मुझसे पूछा।
“बस खाली , अजीब-सी तबीयत हो रही है।” मैंने बोझल लहजे में कहा, “मैं घर वापस जाना चाहती हूं।” इन वाकयात पर मैंने सोच लिया था कि वापस कराची चली जाऊं।
“लेकिन अभी तो तुम्हें आए सिर्फ एक हफ्ता हुआ है।” वह हैरान हुई। “बस खाला, मैं यहां बोर हो गई हूं।” मैंने बेजारी प्रकट की।
“थोड़े दिन और रुक जाओ। तुम्हारे अंकल आ जाएंगे, फिर चली जाना। देखो, मैं अकेली रह जाऊंगी।” उन्होंने अपना मसला बताया, तो मैं चुप हो गई।
वह सम्मोहक लहजे में मुझसे पूछ रहा था, “तुम मुझसे भयभीत हो?” “नहीं।” मेरी गरदन इनकार में हिली।
“फिर मुझसे मिलने क्यों नहीं आईं?” उसने करीब आकर मेरे खुले बाल अपनी कलाई पर लपेटते हुए झुककर पूछा।
“तुम जो आ जाते हो।” मेरे होंठों से निकलने वाले शब्द जैसे खुद मेरे लिए विस्मय का सबब थे। उस अजनबी का इतना सामीप्य और यह रूमानी जुमले।
“मीना, तुम यहां क्या कर रही हो।” खाला की आवाज पर बेसाख्ता मैंने आंखें खोल दीं। मैं उस आखिरी कोने वाले भुतहे कमरे में एक तरफ बैठी थी।
“तुम यहां क्यों आई हो? मैंने तुम्हें बताया भी था।” निगहत खाला मेरी रहस्यपूर्ण खामोशी पर
भयभीत लहजे में बोलीं।
“मैं…मैं यह कमरा देखने आई थी।” मैंने असल बात छुपाते हुए संजीदगी से कहा।
“क्यों? इसमें क्या रखा है, जिसे देखा जाए?” वह रुष्टता से बोलीं और मेरी बेताब नजरें उसे तलाश करने लगीं, जिसके सम्मोहन में डूबकर मैं यहां तक पहुंची थी। विस्मय इस बात का भी था कि मैं उससे भयभीत नहीं थी, बल्कि मुझे उससे मुहब्बत हो रही थी, जैसे मैं बरसों से उसे जानती हूं। एक कशिश-सी मुझे उसकी ओर खींच रही थी।
“अब यहां से चलो भी, क्या बुत बनी खड़ी हो?” निगहत खाला ने मुझे निश्चल खड़ी देखकर घसीटा और मैं खाली-खाली नजरों से उसे ढूंढ़ती उनके पीछे चल दी।
“तुमने मेरा इंतजार किया था?” वह मेरे कंधे थामकर पूछ रहा था। “बहत।” मैंने बेताब लहजे में कहा।
“मैं तुमसे मुहब्बत करता हूं और तुम्हें हमेशा अपने पास रखना चाहता हूं। क्या तुम मेरी खातिर सब कुछ छोड़ सकती हो?” वह सम्मोहित लहजे में पूछ रहा था।
“हां।” मैंने उसकी आंखों में डूबते हुए कहा और उसके साथ ही जैसे फासले मिट गए।
“मीना, कब तक सोती रहोगी, उठो।” खाला की आवाज पर मैंने मुश्किल से आंखें खोलीं।
“तुम्हारी आंखें तो सुर्ख हो रही हैं। ओह! तुम्हें तो तेज बुखार है।” उन्होंने अपना हाथ मेरे माथे पर रखकर चिंता से कहा…और फिर मेरा जेहन अंधेरे में डूबता चला गया। दोबारा होश में आने पर मैंने खाला के साथ अंकल को भी देखा, जो परेशानी की हालत में डॉक्टर से कुछ बात कर रहे थे। खाला के कथनानुसार, मैं दो दिन बुखार की अवस्था में बेहोश रही थी और तीसरे दिन मुझे होश आया था। उसी शाम खाला के जोरदार आग्रह पर कासिम बाबा मुझे देखने आए।
“बेटी की यह हालत कब से है ?” उन्होंने पूछा। “तकरीबन चार रोज से।” खाला ने बताया।
खाला चाय का इंतजाम करने के लिए कमरे से बाहर गईं, तो उन्होंने मुझसे पूछा, “वह तुमसे मिलने कब आता है?”
“वह…कौन…?” मैंने ताज्जुब से उन सफेद दाढ़ी वाले बुजुर्ग की ओर देखा, जिनकी बड़ी-बड़ी सुर्ख आंखें अंदर उतरती महसूस हो रही थीं। उनके लहजे में इतनी नरमी और ठंडक थी कि बेइख्तियार मैं प्रभावित हो गई।
“तुम सम्मोहित हो बेटी और यह हो ही नहीं सकता कि जिसके सम्मोहन में गिरफ्तार हो, वह तुमसे मिलता न हो।” उनके होंठों पर रहस्यपूर्ण मुस्कराहट बिखर गई और मैं बेइख्तियार सभी बातें उनसे कहती चली गई।
“उसके सामीप्य से ही तुम्हारा यह हाल है। तुम नमाज पढ़ती हो?” उन्होंने पूछा, तो मुझे शरमिंदगी ने घेर लिया। वह इतने वृद्ध होकर नमाज के पाबंद थे और मैं तो बिलकुल पढ़ती ही नहीं थी। मैंने इनकार में सिर हिला दिया।
“यह तो बहुत अफसोस की बात है। नमाज पढ़ना तो हर मुसलमान का फर्ज आयद होता है। यह इसी तरह जरूरी है, बेटी, जिस तरह सांस लेना। इशा की नमाज के बाद मैं तावीज भेजवाऊंगा, उसे तुम पहन लेना। इस तरह तुम उससे महफूज रहोगी, लेकिन पूरी तरह अपने आपको उससे महफूज रखने के लिए जरूरी है कि तुम नमाज पढ़ना शुरू कर दो।”
उनकी बातों पर मैंने अमल करने का दृढ़ इरादा किया और सोचा, बुखार के उतरते ही नमाज की पाबंदी करूंगी। बाद में उनका भेजा हुआ तावीज मैंने पहन लिया। वह तावीज पहनते ही मुझे अपने अंदर ताकत दौड़ती-सी महसूस हुई और तबीयत का बोझलपन जैसे कहीं दूर जा सोया। मैंने अपनी तबीयत काफी बेहतर महसूस की।
उसी रात मैंने उसे फिर ख्वाब में देखा। वह उसी आखिरी कमरे में मौजूद था।
“तुमने यह तावीज क्यों पहन लिया है ? यह तुम्हारे और मेरे बीच दीवार की तरह बाधक है। इसे उतार फेंको। मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूं।”
उसकी हसीन आंखों से छलकते आंसू जैसे मेरे दिल पर गिर रहे थे। हो सकता था कि मैं उसके मुहब्बत भरे शब्दों के जादू में गुम होकर तावीज को उतार फेंकती कि उसी समय ‘अल्लाह हो अकबर’ की आवाज सुनकर मेरी आंख खुल गई। मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था और सारा चेहरा आंसुओं से तर था। मैं उठकर बैठ गई और चेहरा साफ करने लगी। मुझे कासिम बाबा की बात याद आई। नमाज की पाबंदी करो। यह तुम्हें हमेशा के लिए उसके सम्मोहन से मुक्ति दिला देगी। मैं उठकर वज़ करने के लिए बाथरूम की ओर बढ़ गई। नमाज के लिए उठते समय सारे खौफ जैसे कहीं दूर जा छपे थे। बाहर आई, तो खाला नमाज के लिए उठ चुकी थीं। वह आशा के प्रतिकूल मुझे इतनी सुबह जागती देखकर हैरान रह गईं, क्योंकि वह अच्छी तरह जानती थीं कि मैं नमाज की पाबंदी बिलकुल नहीं करती थी। उन्होंने मेरे इस सुखद परिवर्तन पर खुशी प्रकट की।
कासिम बाबा ने मेरी अवस्था के बारे में खाला से भी बात की थी, और बताया था कि बालों के सबब एक जिन्न मुझ पर मोहित हुआ था। अब उनके दिए हुए तावीज के अलावा उसका सम्मोहन खत्म करने के लिए मुझे पाबंदी से नमाज पढ़नी होगी। तब कहीं जाकर उस जिन्न का सम्मोहन खत्म हो सकता था।
उस दिन मैं कासिम बाबा से मिलने उनके घर भी खाला के साथ गई। वैसे भी तावीज और नमाज के बाद से मुझे अपनी तबीयत ठीक महसूस हो रही थी, वरना पहले मुझे बिस्तर से उठना कठिन लगता था।यों महसूस होता था, जैसे जिस्म में ताकत ही न हो। खाला बाहर ही ठहर गई। मैं अकेली अंदर गई। कासिम बाबा ने थोड़ी देर तक कुछ पढ़ा, फिर मुझ पर फूंककर नरमी से बोले, “कैसी तबीयत है अब, बेटी?”
“ठीक हूं।” उनके मुहब्बत भरे लहजे पर मेरी आंखें सजल होने लगीं। “वह फिर तो नजर नहीं आया?” उन्होंने पूछा। जवाब में मैंने उन्हें पूरा ख्वाब कह सुनाया।
“तुम पर से उसके सम्मोहन का असर खत्म हो रहा है। कुछ इस तावीज की बदौलत, और अब तुमने नमाज भी पढ़ना शुरू कर दी है। पाबंदी से पढ़ोगी, तो वह तुम्हें परेशान नहीं करेगा।” उन्होंने सांत्वना देने वाले स्वर में कहा।
“लेकिन बाबाजी, वह मुझे परेशान नहीं करता।” मैं बेइख्तियार बोली।
“अभी बेशक नहीं करता, लेकिन जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी शादी किसी से करना चाहेंगे, तब वह न सिर्फ तुम्हें, बल्कि तुम्हारे घरवालों को भी परेशान करेगा।” उन्होंने मुझे समझाया।
“लेकिन क्यों?” मैंने पूछा।
“इसलिए कि वह तुमसे मुहब्बत करता है और तुम भी उसके सम्मोहन में गिरफ्तार होकर उसे चाहने लगी हो। हालांकि वह अपने लोगों में और तुम अपने लोगों में ही खुश रह सकती हो, लेकिन यह बात तुम समझ नहीं रहीं।”
उनकी गहरी नजरें जैसे मेरे अंदर उतरकर सच को पा गई थीं। यह सच था कि मैं उसे चाहने लगी थी और कल रात का ख्वाब मुझे बहुत उदास कर गया था। उसके आंसू बार-बार मेरी आंखों को । सजल करने पर मजबूर कर रहे थे। कासिम बाबा की इस बात पर मैं फूट-फूटकर रोने लगी। उन्होंने मुझे नरमी से समझाया और इस बात का एहसास दिलाया कि मैं वास्तव में उससे मुहब्बत नहीं करती, बल्कि उसके सम्मोहन के कारण उसमें कशिश महसूस करती हूं। ज्यों-ज्यों उसका सम्मोहन उतरेगा, मैं उसे भूल जाऊंगी। उन्होंने मुझे एक आयत पढ़ने को बताई और कहा, “इस आयत के पढ़ने से तुम्हारा बेकरार दिल पुरसुकून हो जाएगा और वह तुम्हें ख्वाब में भी नजर नहीं आएगा।”
“क्या मैं उसे भूल जाऊंगी?” उसे भुलाने का मुझे बेहद रंज था।
“हां। जब तुम उसके सम्मोहन से पूरी तरह आजाद हो जाओगी, तो उसे भूल जाओगी। बेहतर है, तुम वापस कराची चली जाओ और इस तावीज को कभी अपने से जुदा मत करना। नमाज की पाबंदी करना और इस आयत को इशा की नमाज के बाद तब तक पढ़ती रहना, जब तक वह तुम्हें ख्वाब में नजर आना बंद न हो जाए।” उन्होंने मुझे हिदायतें दीं।
“मैं ठीक हो जाऊंगी?”
“यकीनन…और बेटी, जिस तरह अल्लाह ने हमें पैदा किया है, उसी तरह जिन्नात भी बनाने वाला वही है। उनके वजूद से इनकार करना बेवकूफी है। कभी मजाक में भी उनका हवाला नहीं देना चाहिए।” वह मुझे मेरी कोताहियों से आगाह कर रहे थे और मैं शरमिंदगियों में डूबती चली जा रही थी। इस वाकये से पहले तो मैं यह सब कुछ मजाक ही समझती थी और इन बातों पर यकीन भी नहीं किया करती थी, लेकिन अब जैसे अपनी हिमाकतों पर अफसोस हो रहा था।
उस रात की नमाज के बाद मैंने उस आयत को पढा और पढ़ते-पढ़ते सो गई। मुझे ख्वाब में वह मंजर नहीं आया, पर जब मैं सुबह उठी, तो कमरे से वही जानी-पहचानी खुशबू आ रही थी-वैसी ही सम्मोहक और दिलफरेब।
दूसरे ही दिन मैं अंकल के साथ अपने घर लौट आई। वहां आकर भी अपनी दिनचर्या में अंतर न आने दिया। सब घरवाले हैरान थे कि वहां ऐसा क्या जादू हुआ कि मैं नमाज की पाबंद हो गई थी। बहरहाल, इस सुखद परिवर्तन पर सभी ने प्रसन्नता प्रकट की। तावीज के बारे में घरवालों ने पूछा, तो मैंने कह दिया कि बुरी नजर से बचाने के लिए खाला ने डाला था, जिस पर झट दादी ने बढकर बलाएं ली और कहा, “खुदा तुझे नजरे-बद से महफूज रखे।”
दिन बहुत पुर-सुकून गुजर रहे थे। मैंने इंटर के बाद कॉलेज छोड़ दिया। दो साल बाद जिस दौरान मेरी शादी हो रही थी, मेहमानों की अफरा-तफरी और हंगामे में अक्सर मेरी नमाज छूट जाया करती थी। उस दिन मेरी माइयां (पंजाब में विवाह-पूर्व की एक रस्म) की रात थीं। रात गए तक हंगामा रहा। स्वजनों के आग्रह पर मैंने उस तावीज को उतारकर रख दिया था कि रस्मों से फारिग होकर पहन लूंगी। बाद में गीतों के शोरो-गुल और रस्मों के हंगामों में मुझे तावीज पहनना याद नहीं रहा। थकान के कारण उस रात मैंने नमाज भी नहीं पढ़ी। लिहाजा तीन साल बाद मैंने उसे फिर ख्वाब में देखा।
“परसों तुम्हारी शादी होने वाली है। मैं हमेशा के लिए तुम्हारी जिंदगी से जा रहा हूं-महज तुम्हारी खुशी के लिए। मैं तुम्हारी एक अमानत ले जा रहा हूं और एक अपनी दे जा रहा हूं। शादी की खुशी में मेरी तरफ से उस तोहफे को कुबूल करना । वह तुम्हें हमेशा मेरा एहसास दिलाता रहेगा। जब कभी मुझे तुम्हारी याद आएगी, मैं तुमसे मिलने आया करूंगा। मेरी जात से कोई परेशानी नहीं होगी। मैं तुमसे गाफिल नहीं रहूंगा और न ही आज के बाद तुम्हें कभी नजर आऊंगा।”
उसके इन शब्दों के साथ ही मेरी आंख खुल गई। मैंने खाली-खाली नजरों से चारों तरफ देखा। मेरी रिश्ते की सभी बहनें सोई हुई थीं। हर ओर सन्नाटा था। सिर्फ मेरे दिल की धड़कन थी, जो नॉर्मल से कई गुना बढ़ गई थी। मुझे अपने वजूद से वही खुशबू आती महसूस हुई। बेहद तेज और सम्मोहक, जैसे वह बहुत समीप आकर गया हो। आशा के प्रतिकूल मेरे बाल भी खुले थे। हालांकि रात को मेरी चचेरी बहन इस्मा ने मोतिया की कलियों से बालों को गूंथा था। मैं घबराकर उस दराज की ओर बढ़ी,
जहा कासिम बाबा का दिया हुआ तावीज रखा था, लेकिन अब वह वहां से गायब था और उसकी जगह सोने की बेहद हसीन और नाजुक चेन रखी थी, जिसकी कड़ियों में सफेद नग लगे थे। मैंने चेन को हाथ में लेकर देखना चाहा, कि वह किसी रिश्तेदार की तो नहीं थी, लेकिन उसको उठाते ही जो खुशबू मैंने महसूस की, वह वही खुशबू थी, जो उस समय मेरे वजूद से फूट रही थी। मुझे उसके शब्द याद आए, ‘शादी की खुशी में मेरी तरफ से उस तोहफे को कुबूल करना…वह हमेशा तुम्हें मेरा एहसास दिलाता रहेगा,’ वह तावीज ले गया और यह चेन छोड़ गया था।
उसके सदा के लिए मेरी जिंदगी से चले जाने के फैसले पर मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ, क्योंकि जबसे उसका सम्मोहन मुझ पर से खत्म हुआ था, मुझे यूं लगता था कि वह मेरे लिए अजनबी है। हालांकि इससे पहले मैं उसके सिलसिले में खासा नरम और मुहब्बत भरा कोना दिल में रखती थी। उस तावीज के गायब होने की खबर मैंने खाला को नहीं दी और न ही घरवालों ने कोई ध्यान दिया। मुझे डर था कि कहीं मैं उस तावीज के खोने के बाद दोबारा उसके सम्मोहन की कैदी न हो जाऊं, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। शादी कुशलतापूर्वक हो गई। इस वाकये के बाद मैंने नमाज कभी छूटने नहीं दी।
आज मेरी शादी को आठ साल हो चुके हैं। मेरे शौहर जुनैद बहुत अच्छे और मुहब्बत करने वाले इंसान हैं। कभी-कभी अचानक मुझे अपने कपड़ों और हाथों से वही खशब आती हुई पदमी है. जैसे उससे मुलाकात के बाद मेरे वजूद से फूटती थी। जुनैद का खयाल था कि यह खुशबू मैं अपने मायके से लगाकर आती हूं और घरवालों का खयाल था कि यह कीमती परफ्यूम मुझे जनैद ने लाकर दिया होगा. जबाक उस खुशबू का हकाकत से सिर्फ में या खाला वाकिफ हैं |मैं तुमसे गाफिल नहीं रहूंगा। वह शायद अब भी मुझसे मिलने आता लेकिन दिखाई नहीं देता।