
जल संकट और संरक्षण पर निबंध | Essay on water crisis and conservation in Hindi
इसमें कोई दो राय नहीं कि इस पृथ्वी पर निवास करने वाले समस्त जीवधारियों के लिए जल एक अत्यावश्यक तत्व है. पानी के अभाव में मानव ही नहीं समस्त जीव-जन्तुओं का जीवन-क्रम अव्यवस्थित हो जाता है. यही कारण है कि हमारी सभ्यता संस्कृति का विकास जीवनदायिनी नदियों के तट पर ही हुआ. समस्त जीव-जगत के लिए प्राणवायु (ऑक्सीजन) के बाद जल ही सबसे महत्वपूर्ण तत्व है. हम भोजन के बिना तो कुछ दिन जी सकते हैं, लेकिन पानी के बिना केवल कुछ घण्टों तक ही जीवित रह सकते है. यद्यपि इस पृथ्वी के 70 प्रतिशत भाग पर जल है, लेकिन उसमें से 67 प्रतिशत सागरों में खारे जल के रूप में भरा है.
विश्व में उपलब्ध सम्पूर्ण जल में से 2.5 प्रतिशत से भी कम मीठा पानी है और इसमें भी दो तिहाई से अधिक भाग हिमखण्डों में जमी हुई हालत में है. बाकी बचा हुआ मीठा पानी लगातार चलने वाले जल चक्र का नियमित हिस्सा है. दो तिहाई पानी भाप बन कर उड़ जाने के कारण उपयोग में नहीं आता. इसके बाद मीठे पानी का जो 20 प्रतिशत भाग शेष बचता है वह हमारी पकड़ में नहीं है. बचे हुए 80 प्रतिशत मीठे पानी का तीन चौथाई भाग बाढ़ और मानसून के तौर पर उपलब्ध रहता है. इस प्रकार कुल मिलाकर विश्व के सम्पूर्ण जल संसाधन में से केवल मात्र 0-008 प्रतिशत ही मनुष्य के लिए उपयोग की स्थिति में है. इसमें से भी 70 प्रतिशत पानी प्रदूषण का शिकार है, इस 70 प्रतिशत प्रदूषित जल में से 30 प्रतिशत जल प्रदूषण से विषाक्त हो चुका है. तथ्यों से स्पष्ट है कि इस पृथ्वी पर उपलब्ध मीठे या पेयजल की वर्तमान स्थिति कितनी विकट है.
जल समस्या का कारण
विश्व की आर्थिक, औद्योगिक गतिविधियों और बढ़ती हुई आबादी के कारण जहाँ पानी का खर्च और प्रदूषण प्रतिक्षण बढ़ता जा रहा है वहीं असंतुलित होकर जल चक्र की स्थिति गड़बड़ाती जा रही है. आज तीसरी दुनिया के देश जल समस्या से सर्वाधिक पीड़ित हैं. हमारी जल समस्या का मुख्य कारण बढ़ती हुई खपत और साथ में बढ़ता प्रदूषण ही है. आज पृथ्वी पर उपलब्ध जल की मात्रा उतनी ही है जितनी आज से 200 वर्ष पूर्व थी, लेकिन 200 वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर रहने वालों की जनसंख्या आज की तुलना में मात्र 30 प्रतिशत ही थी. विशेषज्ञों के मतानुसार हमारी जल समस्या का कारण घटती हुई वर्षा न होकर बढ़ता जलीय कुप्रबन्धन है. आज इजराइल जैसे 25 सेमी से कम वर्षा वाले देश में भी लोगों को पानी की उस किल्लत का सामना नहीं करना पड़ता जैसा भारत जैसे 115 सेमी से भी अधिक वर्षा वाले देश के कई क्षेत्रों के निवासियों को झेलना पड़ रहा है.
वास्तव में इजराइल के निवासी जल जैसी आवश्यक प्राकृतिक सम्पदा का महत्व समझते हैं और एक-एक बूंद जल को संचित कर उसका बेहतर ढंग से उपयोग करते हैं, वहीं भारत जैसे देश में जल संरक्षण के उपायों के अभाव में वर्षा का मात्र 15 प्रतिशत जल ही संचित हो पाता है और शेष नदी-नालों में बहकर समुद्र तक पहुँच कर व्यर्थ चला जाता है. इसके साथ ही तीसरी दुनियां के देशों में शहरी मल जल,खेती में कीटनाशकों, रासायनिक खादों और उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषित जल से नदी झीलों सहित भूजल भी तेजी से प्रदूषित हो रहे हैं. दूसरी ओर इन देशों में जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगातार घटती जा रही है जो निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट है.
भारत में प्रति व्यक्ति जल की घटती मात्रा
वर्ष | जनसंख्या (करोड़ में) | प्रति व्यक्ति घन मीटर उपलब्धि 1947 |
1947 | 40 | 6000 |
2000 | 100 | 2300 |
2025 | 139 | 1500 |
2050 | 160 | 1000 |
जल की घटती उपलब्धता ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यदि हम समय रहते हुए सचेत नहीं हुए और भारत सहित तीसरी दुनिया के विकासशील तमाम देशों में पानी का खर्च यूँ ही बढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं कि जब उपर्युक्त देशों में पानी के लिए तबाही जैसी हालत उत्पन्न हो जाए. पानी की माँग प्रमुख रूप से पीने, सिंचाई, उद्योगों, घरों में कपड़ों की धुलाई, शौचालयों के प्रयोग, घरों की सफाई-धुलाई, जल विद्युत उत्पादन, पशु-पक्षियों के पीने तथा नौ परिवहन में ही होती है. भारत में पानी के बढ़ते खपत रुख परिप्रेक्ष्य में जो खाका बनता है वह इस प्रकार है
वर्ष | माँग घन किलोमीटर में |
2010 | 694-710 |
2025 | 784-850 |
2050 | 973-1180 |
पानी की माँग में यह बढ़ोत्तरी अकेले सिंचाई के लिए 1950 में 650 से 807 घन किलोमीटर के आस-पास होगी. उपर्युक्त माँग के परिप्रेक्ष्य में भारत के चिह्नित 24 थालों में सम्भावित सम्पूर्ण जल की मात्रा 1952-87 घन किलोमीटर है. संकटकालीन अवसर पर विकल्प के रूप में 690 घन किलोमीटर सतही जल को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. इसके साथ ही पुन: उपयोग किए जाने योग्य भूमिगत जल स्रोतों की क्षमता 432 घन किलोमीटर है. उपर्युक्त जल उपलब्धताओं के आधार पर देश में उपयोग किए जाने लायक सम्पूर्ण जल स्रोत 1122 घन किलोमीटर का है. इसमें से सिंचाई के लिए 325 घन किलोमीटर तथा शेष अन्य कार्यों के लिए 71 घन किलोमीटर जल का उपयोग सम्भावित है.
सन् 2050 तक ग्रामीण घरेलू कार्यों में 111 घन किलोमीटर तथा शहरी क्षेत्रों में 90 घन किलोमीटर जल की आवश्यकता का अनुमान है. इस प्रकार औद्योगिक कार्यों के लिए कल कारखानों को 81 घन किलोमीटर तथा बिजली बनाने के लिए 63-70 घन किलोमीटर जल की आवश्यकता होगी. सारे बदलावों के बाद भी आने वाले दिनों में पानी की सबसे अधिक खपत खेती में सिंचाई के लिए ही पड़ेगी. सन् 2050 तक सभी क्षेत्रों में पानी की हमारी जरूरत इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि हम समस्त स्रोतों से उपलब्ध सारे पानी का उपयोग करने लग जाएंगे. यह हालत जल संकट का अन्तिम संकेत होगा.
यदि जल की माँग और उपयोग का यही क्रम बना रहा और हमने जल संरक्षण के ठोस उपाय नहीं किए तो हालात को बद से बदतर बनने से नहीं रोका जा सकेगा. उस समय पेयजल, सिंचाई, उद्योग और घरेलू उपयोग जैसे सभी कार्यों के लिए पानी के लिए हाहाकार जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी उस समय दुनिया के शक्तिशाली देशों द्वारा पड़ोसी निर्बल देशों की ओर जाने वाली नदियों के पानी को रोकने और उन पर कब्जा करने जैसी घटनाएं आम बात होंगी. पड़ोसियों के जल संसाधनों पर जबरिया कब्जे होंगे. पानी को लेकर सैनिक कार्यवाही तक होगी. यह वही स्थिति होगी जिसके लिए दुनिया भर के सामाजिक कार्यकर्ता और जल विशेषज्ञों ने काफी पहले से आगाह किया है.
यदि हालात यूँ ही रहे तो “तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा.” भारत जैसा कृषि प्रधान देश भी पानी की मारा-मारी से नहीं बच सकेगा. यहाँ जल के अभाव में सामूहिक अकाल मृत्यु, जलीय रोगों से मनुष्यों और पशुओं की सामूहिक मौतें और अन्त में सभ्यता और संस्कृति के विनाश की स्थिति पैदा हो जाएगी..
यद्यपि मनुष्य की स्वार्थी और संकुचित दोहनीय प्रवृत्तियों के कारण पूर्व में भी हड़प्पा, बेबीलोन, मेसोपोटामिया, सीरिया, पर्शिया और मध्य अमरीकी-मय सभ्यताओं का विनाश हो चुका है. जिसके अवशेष हमें आज भी देखने को मिलते हैं. इस भयावह विनाशक स्थिति को समयबद्ध अनुशासित और सुनियोजित प्रयास से टाला जा सकता है, जिसके लिए इस पृथ्वी पर पर्याप्त सम्भावनाएं और संसाधन प्राकृतिक रूप ही से मौजूद हैं. आवश्यकता मात्र इस बात की है कि हम प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का सुनियोजित और अनुशासित रूप से प्रयोग और उनके संरक्षणीय उपाय करें.
इस संदर्भ में यदि हमने निम्नांकित उपायों पर ध्यान देकर संरक्षणीय उपायों पर अमल किया तो सभ्यता और संस्कृति के विनाश को अवश्य ही रोका जा सकता है.
वर्षा जल का संरक्षण-वर्षा की दृष्टि से भारतीय उपमहाद्वीप एक समृद्ध क्षेत्र है. यहाँ आज भी औसत वार्षिक वर्षा 115 सेमी के आस-पास होती है. इसमें से 75 प्रतिशत वर्षा बरसात के मौसम के तीन महीनों के मात्र सौ घण्टों में ही हो जाती है. इस वर्षा का 85 प्रतिशत पानी नदी-नालों से बहकर समुद्र में विलीन होकर व्यर्थ चला जाता है, हम इस वर्षा जल के समुचित संग्रह के उपाय कर लें, तो कोई कारण नहीं कि हमारे देश में जल संकट जैसी स्थिति रहे, लेकिन हमने अपनी स्वार्थलिप्सा के चलते संग्रह संसाधनों का व्यापक विनाश कर पूर्व में बने जल संग्रह संसाधनों, तालाबों, बावड़ियों, पोखरों, कुण्डों और झीलों का व्यापक विनाश किया है. विशेषज्ञों की राय के अनुसार भारत में इस तरह के पाँच लाख से भी ज्यादा तालाबों, बावड़ियों और पोखरों, कुण्डों को पाटकर नष्ट कर दिया गया है और इनका पाटा जाना अब भी अबाध गति से जारी है. हमारी इन प्रवृत्तियों से वर्षा जल के संचयन में भारी बाधा आ रही है. यदि हम भावी जल संकट से उबरना चाहते हैं तो हमें ताल-पोखरों के पाटने के बजाय उनकी संख्या बढ़ाकर वर्षा जल की एक-एक बूंद को संगृहीत करना पड़ेगा.
सतही जल-प्रदूषण–तीसरी दुनिया के विकासशील देशों में सतही जल-प्रदूषण एक आम समस्या है, जिसके कारण इन देशों की अधिकतर नदियों और झीलों का पानी प्रदूषित होकर अपेय हो गया है. इन देशों में 90 प्रतिशत शहरी मल जल, अवजल और उद्योगों द्वारा निस्तारित प्रदूषित पानी बिना उपचारण के ही नदियों में बहा दिया जाता है, जिसके कारण इन नदियों का पानी पीने की बात तो दूर नहाने लायक भी नहीं रह गया है. खेती में बेतहाशा कीटनाशकों और रासायनिक खादों के प्रयोग से भी नदियों और तालाबों के पानी में विषाक्तता बढ़ी है. अतः सतही जल की प्रदूषण से रक्षा के लिए जरूरी है कि मलजल, अवजल और उद्योगों के प्रदूषित जल को पूर्णरूपेण उपचारित किए बिना नदियों में न डाला जाए..