
साम्प्रदायिकता के दुष्परिणाम और निराकरण पर निबंध |Essay on the ill effects and solution of communalism
साम्प्रदायिकता की पूर्व धारणा-राष्ट्रीयता का नैतिक स्वरूप
राष्ट्रीय एकता एक राष्ट्र के सम्पूर्ण आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक जीवन की एकता और समरसता के रूप में परिभाषित की जाती है, जबकि हमारे खानपान, रहन सहन, पूजा-पाठ, वस्त्र-भाषा में अन्तर हो. अर्थात् संसार के सम्मुख हमारी पहचान केवल शब्द ‘भारतीय’ से हो न कि अन्य विशेषणों से. हम चाहे किसी धर्म या सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हों, देश की सुरक्षा व अखण्डता अपना परम धर्म होना चाहिए. राष्ट्र की सुरक्षा का दायित्व केवल सेना, शासन और पुलिस का नहीं है, बल्कि यह हम सब नागरिकों का कर्त्तव्य है कि हम सभी इसे अपने-अपने तरीके से पूरा करें बशर्ते कि हम अपने राष्ट्र-प्रेम के साथ ही अन्य देशों की अस्मिता का सहर्ष आदर करें.
साम्प्रदायिकता के उद्भव रूपी कारण और दुष्परिणाम
स्पष्टतः साम्प्रदायिकता की धारणा ‘हिन्दुत्व’ और ‘मुस्लिम उग्रवाद’ की पृथकता वादी और स्वयं को उत्कृष्ट मानने की सोच पर आधारित है, जो सम्भवतः मुस्लिम बाह्य आक्रमणकारियों के भारत में आगमन के साथ उदित हुई और ब्रिटिश राज के फलस्वरूप चमकी. वर्तमान परिदृश्य में निम्नलिखित कारणों से प्रोत्साहित हो रही है
राष्ट्रवादी आक्रामकता किसी राष्ट्र के अस्तित्व के निर्माण और स्थायित्व में वहाँ की जनता के मन में स्थित निष्ठा, प्रेम और आदर की भावना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. राष्ट्र-प्रेम व एकता राष्ट्र के प्राण हैं. यह एक ‘स्वभावना’ है, जो सभी राष्ट्रवासियों में पाई जाती है और होनी भी चाहिए, किन्तु जब यही भावना अति की सीमा लाँघकर उग्र रूप धारण कर ले, तो इसे ही ‘राष्ट्रवादी आक्रामकता’ कहा जाता है. हमारा देश सदियों से अपनी विभिन्न धार्मिक, सांस्कृतिक, सामुदायिक साझा सभ्यता व संस्कृति का विश्व-आदर्श रहा है, किन्तु स्वतन्त्रता के बाद जिस तरह देश-प्रेम की भावना कब स्वार्थपूर्ण माँग और विभाजन में बदल गई, उसका कारण खोजना इतना आवश्यक नहीं, जितना कि इसके सार्थक उपाय करना. आज कुछ तुच्छ प्रकृति के व्यक्ति अपनी संकीर्ण सोच से देश की अखण्डता को मिटा देना चाहते हैं. कभी भाषा, कभी धर्म या जाति और कभी किसी अन्य कारण से समय-समय पर देश के विभिन्न भागों में तेलंगाना, गोरखालैण्ड, खालिस्तान, हरित प्रदेश आदि माँगें तथा अभी हाल ही में महाराष्ट्र राज्य के मुम्बई शहर में राष्ट्रवादी भावना का जो खून किया गया, वह भी केवल प्रादेशिक पृथक् अस्मिता की रक्षा के नाम पर, राष्ट्र की आत्मा पर किया गया गम्भीर प्रहार है. लोकतन्त्र की पहचान कहे जाने वाले देश में हिन्दी भाषी, उत्तरवासी, बिहारी व्यक्तियों के प्रति पृथकतावाद की भावना अन्ध क्षेत्रवाद का प्रमाण है. हमारे देश के संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव व दबाव के कोई भी धर्म अपनाने, व्यापार करने, रहने, आने-जाने, विचार व्यक्त करने आदि के मौलिक अधिकार दिए गए हैं, जिन्हें ये भ्रष्ट नेता और व्यक्ति अपनी दुष्टता से छीन रहे हैं.
धार्मिक अन्धवाद तथा कट्टरता-प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था और श्रद्धा के अनुसार किसी भी धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का पूरा अधिकार होता है. यह अधिकार हमारे संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में दिया गया है. संसार में अनेक धर्म व मत पाए जाते हैं, किन्तु अधिकतर धर्मों का जन्म-स्थल है हमारा देश भारत. हमारा देश हिन्दू, मुस्लिम, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई आदि धर्मों का मिश्रित संगम है. हमारे प्राचीन और स्वतन्त्रताकालीन इतिहास में धार्मिक एकता व सहिष्णुता की अद्भुत मिसाल पेश करने वाले असंख्य उदाहरण हैं. मुस्लिम कवि रसखान, श्रीकृष्ण के परम भक्त थे. कबीरदास जी के गुरु रामानन्द थे. मुगल बादशाह अकबर के दरबार में तानसेन, बीरबल, राजा टोडरमल जैसे प्रसिद्ध और प्रभावशाली हिन्दू थे. अकबर ने सिख गुरु को भूमिदान भी किया था. रानी कर्मवती ने हुमायूँ को अपना राखी भाई बनाया था. प्रसिद्ध सन्त हजरत गौस को एक पंडित की पत्नी ने पाला था, जिन्होंने अपने पंडित पिता की मृत्यु पर क्रिया व संस्कार स्वयं पूर्ण किए थे. इसी तरह से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में सभी धर्म, सम्प्रदाय, जाति के व्यक्तियों ने भाई-भाई के रूप में भाग लिया था, किन्तु धार्मिक उन्माद का यह वर्तमान काला संसार कब हमारे समाज में आया पता ही न चला. यद्यपि इसकी पृष्ठभूमि में हिन्दुत्ववादी मुगल शासक औरंगजेब की दमनकारी व कट्टरवादी धार्मिक प्रवृत्ति को उत्तरदायी व मुख्य कारण ठहराते हैं, किन्तु हमारे देश में इसके ज्वलन्त उदाहरण 1992 ई. में अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हुए 1993 ई. में मुम्बई बम विस्फोट, पंजाब, गुजरात आदि राज्यों में सन 1984 तथा 2002 में भडकी साम्प्रदायिकता हिंसा व दंगे-फसाद आदि हैं. धार्मिक कट्टरता आज आतंकवाद का रूप ले चुकी है और इसमें धार्मिक बुद्धिजीवियों व प्रतिनिधियों द्वारा समय समय पर दिए जाने वाले पंचायती निर्णय और भड़काऊ बयान समाज को दो फाँक करने पर हर प्रकार से तुले हैं. सात्विक धर्म का अनियन्त्रित स्वरूप न केवल हमारे देश में बल्कि चीन जैसे देश द्वारा तिब्बत की धार्मिक-सांस्कृतिक सत्ता पर किए जा रहे हैं.
राजनीतिक महत्वाकांक्षा- राजनीतिक सत्ता प्राप्ति की लालसा भी साम्प्रदायिकता के कारकों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. आधुनिक राजनीति पूर्णतः धर्म व जाति पर आधारित हो गई है. विभिन्न दल समाज को धर्म, सम्प्रदाय व जाति में बाँटकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर लेते हैं. जनता बिना सोचे-समझे बस अपनी जाति व धर्म के व्यक्तियों का साथ देती है, जबकि नेता केवल उन्हें सत्ता-प्राप्ति के साधन मानते हैं. राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले व्यक्ति लोगों को आपस में लड़ाकर कोई न कोई मुद्दा तैयार करने में लगे रहते हैं, जिससे समाज पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है.
सत्ता के प्रति असन्तोष- सरकार के प्रति बढ़ते हुए असन्तोष ने समाज को वर्गों के रूप में टुकड़ों में विभाजित कर दिया. प्रत्येक चुनाव में विभिन्न राजनीतिक दलों का कोई न कोई धर्म या जाति से जुड़ा मुद्दा अवश्य होता है, जैसे भाजपा का राम मन्दिर या सेतु समुन्द्रम, कांग्रेस का तुष्टीकरण, बसपा की दलित नीति, सपा का अगड़ी जाति प्रेम, कम्युनिस्टों का वामपंथ आदि. इसके अतिरिक्त आरक्षण की ज्वलन्त माँग जिसमें पिछडे और अल्पसंख्यक जैसे शब्द लोगों की भावनाओं को भडकाकर एक-दूसरे का शत्रु बना रहे हैं. इस प्रकार सरकार के इस राजनीतिक खेल में समाज साम्प्रदायिकता जैसे भयंकर संकट की चपेट में आ जाता है. मुस्लिम आरक्षण व गुर्जर आरक्षण इसके त्वरित उदाहरण हैं.
प्रशासन की अकर्मण्यता- देश में विद्यमान नौकरशाही प्रशासन के नाम पर केवल राज करती है. प्रशासनिक तन्त्र में व्याप्त भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और लापरवाही ने लोगों का जीना दूभर कर दिया है. नियुक्ति होते ही अधिकारीगण अपनी
ऐश-परस्त, उत्तरदायित्व हीन जिन्दगी में खो जाते हैं. लंदन के एक साप्ताहिक ‘इकोनॉमिस्ट’ ने हाल ही में कहा कि “भारत के तीव्र विकास में नौकरशाही सबसे बड़ा रोड़ा है.” वास्तव में प्रशासन की स्वेच्छाचारिता पर भी सम्प्रदाय, धर्म, जाति से सम्बन्धित व्यक्तियों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव अवश्य पड़ता है, जो बाद में राजनीतिक और अन्ततः साम्प्रदायिक रूप ले लेता है.
शिक्षा की संकीर्णता–’सम्प्रदायवाद’ शब्द की अवधारणा ही हिन्दुत्व और ‘मुस्लिम सम्प्रदाय’ के पारस्परिक वैचारिक मतभेद से की जाती है. मुस्लिम समाज का एक वर्ग रूढ़िवादी और संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त रहा है. स्त्रियों की शिक्षा पर रुकावट, पर्दा प्रथा तथा धार्मिक शिक्षा का प्रसार आदि ने उन्हें शिक्षा के वास्तविक अर्थ और उद्देश्य से काफी दूर कर दिया. सच्चर समिति का उद्देश्य यही था कि मुस्लिम समाज की बुनियादी समस्याओं का पता लगाकर उन्हें दूर किया जाए, किन्तु इसका विरोध किया गया. इन्होंने शिक्षा को केवल धर्म के प्रसार का साधन माना, जबकि शिक्षा व्यक्ति के जीवन के हर पहलू का व्यापक और उसकी सार्वभौमिक विचारधारा के विकास का साधन है.
निराकरण के उपाय
साम्प्रदायिकता के दुष्परिणामों को नियन्त्रित करने तथा पुनरावृत्ति करने से रोकने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं
उदार राष्ट्रवादी भावना को प्रोत्साहन- साम्प्रदायिकता समाज को तोड़कर बिखेर देती है. एक सभ्य समाज आपस में मिल-जुलकर शान्तिपूर्वक रहने वालों से बनता है, जो अपने साथ ही दूसरों को भी समान आदर भाव दें. सम्प्रदाय की कटुता मिटाने के लिए अपने सोचने का तरीका बदलना होगा और दृष्टिकोण विस्तीर्ण करना होगा, ताकि हम दूसरे धर्म, राष्ट्रों आदि के धर्म-स्थलों, प्रतीकों तथा भावनाओं को भी उतना ही प्यार और सम्मान दें, जितना कि अपने धर्म या पूजा स्थलों को देते हैं. दूसरे देशों को भी स्वदेश के समान सम्मान दें सभी ईश्वर की सन्तान हैं. यही हमारी राष्ट्रीय पहचान का मूलमंत्र होगा.
सार्वभौमिक विचारधारा का जन्म-भारत बहुरंगी, बहुधर्मी, भाषी-बोलियों का देश है. प्रत्येक व्यक्ति को केवल अपने धर्म, भाषा, संस्कृति को ही श्रेष्ठ न मानकर अपने विचारों का दायरा फैलाया जाए. अपने मातृधर्म, भाषा आदि के साथ अन्य धर्म, भाषा, संस्कृति व राष्ट्र के प्रति सार्वभौमिक विचार विकसित करें, जिसमें कोई धोखा, छल-कपट या दिखावे की प्रवृत्ति न हो. हमें वास्तविक और सत्य पर आधारित राष्ट्रीय आदर्शों का पूर्ण सात्विकता से पालन करना चाहिए.
धार्मिक सहिष्णुता- धर्म के आधार पर अलग पहचान कायम करने के स्थान पर, धर्म के नाम पर रूढ़ियों को आबद्ध करके उसका क्रमिक विकास न रोकें. धर्म आस्था का विषय है. एक धर्म को मानने वाला अन्य धर्मों के प्रति भी अपनी श्रद्धा रखे. इसमें कोई बुराई नहीं. धर्म की गहराई जानने वाला सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करता है न कि उनको बहिष्कृत करके.
स्वच्छ और नैतिकतापूर्ण राजनीति- आज राजनीति की जो स्थिति है, उसमें ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल है, किन्तु राजनीति अपने इस स्वरूप में जन्म से नहीं थी. अरस्तू, चाणक्य जैसे महान राजनीतिक अर्थपूर्ण राजनीति के जनक माने जाते हैं. ऐसा तभी हो सकता है, जब राजनीति के सदस्यगण इसको सत्ता का घर न मानकर जनसेवा का माध्यम समझें. यदि ये व्यक्ति अपनी वास्तविक नीतियों का कुछ सीमा तक ही सही, पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करें, तो समाज में वास्तविक प्रेम और एक अलग मुकाम हासिल कर सकते हैं.