
भारत में लोकतंत्र का भविष्य- Essay on the future of democracy in India
लोकतंत्र महज एक शासन प्रणाली ही नहीं है यह एक जीवन दर्शन भी है. प्रसिद्ध विचारक हैराल्ड लास्की ने कहा है-
“सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र मृग-मारीचिका हैं”
परन्तु लोकतंत्र की उपर्युक्त कसौटी पर भारतीय लोकतंत्र खरा नहीं उतरता. अतएव भारत में इसका भविष्य अंधकारमय प्रतीत होता है.
स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही हम सामाजिक समरसता स्थापित करने की बात करते आ रहे हैं, परन्तु व्यावहारिक धरातल पर समाज के किसी भी पक्ष में असमानता के उदाहरण सहज देखे जा सकते हैं. गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की स्थिति दयनीय होती जा रही है. जातिगत एवं मजहब गत वैमनस्य दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण की सुविधा ने समाज के स्वरूप को अणुवादी बना दिया है, भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित हो चुका है, परन्तु आज तक ‘समान नागरिक संहिता’ लागू नहीं की जा सकी है. ऐसे में लोकतंत्र के उज्ज्वल भविष्य की आशा कैसे की जा सकती है?
व्यक्ति के अधिकारों, स्वतंत्रता तथा विकास को लोकतंत्र में पवित्रता के भाव से देखा जाता है, परन्तु भारतीय संदर्भ में लोकतंत्र के ये सिद्धान्त आदर्श अधिक और यथार्थ कम हैं. आज एक और समाज का सशक्त वर्ग आम आदमी की स्वतंत्रता का हरण का रहा है, तो दूसरी ओर पुलिस आम आदमी के अधिकारों की रक्षा कम, उसका उत्पीड़न अधिक कर रही है. इसे लोकतंत्र का उपहास ही कहा जाएगा.
आज हमारा लोकतंत्र अनुशासनहीनता का जीता-जागता उदाहरण बन गया है. स्वाधीनता के नाम पर स्वच्छन्दता की सीमाओं का उल्लंघन आम बात हो गई है. राजनेता, अधिकारी तथा आम कर्मचारी सभी अपने अधिकारों की सीमा का उल्लंघन करते हैं. हमारे सांसद तथा विधायक अपने व्यवहार द्वारा संसदीय शालीनता की समस्त मर्यादाएं तोड़ रहे हैं. वे आए दिन आपस में गली-गलौज तथा मारपीट करते हुए देखे जा सकते हैं. पिछले दिनों गुजरात विधान सभा और उसके पूर्व उत्तर प्रदेश, बिहार, आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा महाराष्ट्र की विधान सभाओं में जो कुछ भी हुआ वह अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा थी. पिछले दिनों गुजरात एवं उत्तर प्रदेश के राज्यपालों द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग भी एक प्रकार की अनुशासनहीनता है. क्या इन सबसे हमारे लोकतंत्र के भविष्य पर प्रश्नचिह्न नहीं लगता?
भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के सम्बन्ध में एक चिन्ताजनक पहल यह भी है कि यहाँ भ्रष्टाचार संक्रामक रोग की तरह समाज के सभी क्षेत्रों में तेजी से फैल गया है. ‘भ्रष्टाचारः परमो धर्मः आज के राजनेताओं का आदर्श बन गया है. नित नए घोटाले प्रकाश में आ रहे जो भारतीय लोकतंत्र के चेहरे पर कालिख पोत रहे हैं. ‘यथा राजा तथा प्रजा’-इसी कारण अधिकारी वर्ग से लेकर लिपिक वर्ग सभी भ्रष्टाचार की बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं.
सार्थक शिक्षा का अभाव भारतीय लोकतंत्र के भविष्य हेतु अशुभ लक्षण है. आज हमारे देश में जो शिक्षा प्रणाली प्रचलित है वह बेरोजगारों की लम्बी कतार खड़ी कर रही है जो अपनी निराशा, तनाव एवं कुण्ठा के चलते विध्वंसात्मक कार्यों में संलग्न होते जा हैं. वे चुनावों को आजीविका के एक माध्यम के रूप में देखते हैं और उसमें भाग लेते समय विवेक को तिलांजलि दे देते हैं.
सम्प्रति भारतीय लोकतंत्र को नानाविध पृथकतावादी प्रवृत्तियों का सामना करना पड़ रहा है जिनकी उपस्थिति ही लोकतंत्र के अस्तित्व को नकार देती है. आजादी के बाद से ही कभी भाषा के नाम पर तो कभी जाति एवं समुदाय के नाम पर, कभी विकसित अविकसित क्षेत्र का नारा देकर तो कभी धर्म एवं जाति के नाम पर मानवीय भावनाओं को भड़काकर विविधताओं में एकतावादी भारतीय एकता को खण्डित करने की कुचेष्टा की गई है.
भारत में लोकतंत्र की रीढ़ कही जाने वाली निर्वाचन प्रणाली भी दोषयुक्त है. बहुदलीय शासन प्रणाली की दोषपूर्ण पतवार ने देश को आर्थिक नुकसान तो पहुँचाया ही है उसे राजनीतिक अस्थिरता की आग में झोंक दिया है. इसके अतिरिक्त धर्मगत, जातिगत एवं क्षेत्रगत भावनाओं को भड़काकर बनने वाले राजनीतिक दलों ने नागरिकों के आपसी सद्भाव को भी समाप्त करने की कुचेष्टा की है. इसके कारण भारतीय लोकतंत्र की कश्ती कठिनाइयों के ऐसे भँवरजाल में फँस गई है जहाँ वह डगमगाती हुई अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए अन्तिम संघर्ष कर रही है.
भारत में सत्ता पक्ष और विपक्ष में आपसी सामंजस्य दृष्टिगत नहीं होता जो लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है. सत्ता पक्ष विपक्ष के लगभग सभी सुझावों को अनुपयोगी घोषित कर देते हैं वहीं विपक्ष सरकार के हर कार्य-कलाप की आलोचना करते नहीं थकते. उनके इस अन्तर्कलह में भोली-भाली जनता पिस रही है.
भारतीय राजनीति का स्वरूप भी विकृत हो गया है. आज की राजनीति आदर्शविहीन होकर सिर्फ लुभावने नारों एवं फरेब के बल पर येन-केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होने का माध्यम बनकर रह गई है. राजनीतिक दल निर्धन एवं अशिक्षित जनता को उल्टा-सीधा समझाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं. इसमें वे असत्य, लालच-लोभ, छल-कपट, दबाव आदि सबका सहारा लेते हैं. आज की राजनीतिक तृष्णा रूपी बेलों को बढ़ाने वाली जलधारा है, सत्कार्य रूपी सत्कार्य रूपी चित्रों को मलिन करने वाली धुएं की राशि है, आज यह धन-सम्पत्ति के रूप में निर्धनों के मन को लुभा देती है, बम-बारूद के बल पर दिमाग में कम्पन उत्पन्न करती है, चुनावी आश्वासनों की उपेक्षा कर मानस पटल को व्यथित करती है, देश की मर्यादा संसद भवन में अपना रण-कौशल प्रदर्शित करती है, जातीय उन्माद फैलाकर सामाजिक व्यवस्था को विषाक्त करती है, कुत्सित मानसिकता वाले भाषण रूपी बाणों से हृदय विदीर्ण करती है तथा घोटालों का भोजन परोसती है.
भारत की न्यायिक प्रक्रिया एक ऐसी विलम्बित प्रक्रिया है जिसमें प्राप्त न्याय अन्याय का भेद मिट गया है. निचली अदालत के निर्णय को उच्च न्यायालय द्वारा बदल देना तथा उच्च न्यायालय के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त कर देना भारतीय न्याय व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है. एक ही मामले में किसी अभियुक्त को बिना आरोप पत्र दाखिल किए जेल में रखना और उसी अभियोग के अन्य अभियुक्त को जमानत दे देना क्या भारतीय न्याय व्यवस्था का मखौल नहीं उड़ाता? उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन के मुददे पर अलग-अलग न्यायाधीशों द्वारा परस्पर विरोधी निर्णय देना उनके पूर्वाग्रह से ग्रस्त होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है. सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि हमारे कर्णधारों ने संविधान को सुविधावादी रूप प्रदान कर दिया है. अपनी मनमानी करने के लोभ में वे संविधान में आवश्यक संशोधन कर लेना अपना अधिकार मान बैठे हैं. न्यायिक व्यवस्था को ही संदेह के घेरे में खड़ा कर दिया गया है.
आर्थिक लोकतंत्र के अभाव में राजनीतिक लोकतंत्र मृग-मारीचिका मात्र है. सम्प्रति भारत में रोजगार वृद्धि दर प्रतिवर्ष 1.5% है तथा बेरोजगारी की वृद्धि दर प्रतिवर्ष औसत 15% है. गरीबों की संख्या में निरन्तर वृद्धि होती जा रही है तथा आय की असमानता बढ़ती जा रही है. इसके अतिरिक्त हमारा देश विदेशी ऋण के मकडजाल में फंस गया है. आज देशी-विदेशी पूँजीपति विकास के कंगूर पर जा बैठे हैं, परन्तु देश की अधिसंख्य जनता गरीबी, बेरोजगारी और बदहाली के निचले पायदान पर जा पहुँची है, क्या यही है हमारे देश का आर्थिक लोकतंत्र?
लोकतंत्र के पहरेदार एवं चतुर्थ स्तम्भ मीडिया संचार माध्यमों को आतंकित करके कर्त्तव्यपालन से विमुख करने का प्रयत्न किया जा रहा है. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव की प्रेरणा से समाचार-पत्रों पर ‘हल्ला बोल’ अभियान के नाम पर जो कुछ किया गया, उससे भारतीय लोक भावना कलंकित हुई और पत्रकारिता आतंकित
निष्कर्ष– भारत की वर्तमान सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अव्यवस्था की छाया में स्वस्थ लोकतंत्र रूपी वृक्ष का विकास असम्भव है. वर्तमान समय में साम्प्रदायिकता, जातीयता, आर्थिक असमानताओं, बढ़ती कीमतों, घटते रोजगार, सामाजिक असमानता, सार्थक शिक्षा का अभाव, अनुशासनहीनता, सार्वजनिक जीवन में बढ़ते भ्रष्टाचार एवं दोषयुक्त निर्वाचन प्रणाली ने भारतीय लोकतंत्र रूपी शरीर को अपंग बना दिया है. जिस प्रकार वायुमण्डलीय प्रदूषण के कारण ओजोन परत को नुकसान पहुँच रहा है उसी प्रकार राजनीतिक प्रदूषण से लोकतंत्र के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है. वस्तुतः अलोकतांत्रिक शक्तियाँ क्रमशः सशक्त होती जा रही हैं, क्योंकि वर्तमान शासन प्रणाली सर्वथा अकुशल एवं अक्षम है. इससे भारत में लोकतंत्र की ऊर्जा तो स्खलित हुई ही है, एक क्रमिक अदृश्य प्रक्रिया के तहत भारतीय लोकतंत्र का क्षरण आरम्भ हो गया है. अतएव भारत में लोकतंत्र का भविष्य अंधकारमय ही है.