
अध्ययन का आनंद पर निबंध |Essay on Pleasure of Learning in Hindi
यदि कोई व्यक्ति आधुनिक मानव से पूछे कि वह किस मानी में, अपने पूर्वजों से अधिक सौभाग्यशाली है, तो उसका निःसंदेह यही उत्तर होगा कि उसे अध्ययन का आनंद तरह-तरह की पुस्तकों से प्राप्त होता है। एक समय था कि जब मनुष्य बिलकुल अशिक्षित था, लोग लिखना और पढ़ना नहीं जानते थे। फिर लिखना-पढ़ना आया, किंतु पुस्तकें तालपत्र, भूर्जपत्र, शिलापट्ट आदि पर लिखी जाती थीं।
जो व्यक्ति किसी गुरुकुल या विश्वविद्यालय से संबद्ध थे, वही पढ़ने की सुविधा प्राप्त करते थे। जो बहुत संपन्न थे, वे ही उन हस्तलेखों की प्रतिलिपियाँ कराकर अपने पास रख सकते थे और सुविधा और इच्छा के अनुसार पढ़ सकते थे। किंतु, मुद्रण और कागज के आविष्कार के कारण हमारे ज्ञान, विचार और भाव नित्य नई पुस्तकों के रूप में छपकर आने लगे।
उत्तम पुस्तकें इस लोक की चिंतामणि हैं। उनके अध्ययन से सारी कुचिंताएँ मिट जाती हैं, संशय-पिशाच भाग जाता है और मन में सद्भाव जगता है, जिससे पर शांति प्राप्त होती है-ऐसा स्वामी शिवानंद ने ठीक ही कहा है। पुस्तकों की दुनिया वह वैकुंठलोक है, जहाँ आनंद-ही-आनंद है। निराशा और हताशा से चूर व्यक्ति के लिए वह परम विश्रामस्थल है।
मनुष्य भिन्न-भिन्न प्रकार से आनंद प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। कोई नदी तट पर टहलने से आनंद प्राप्त करता है, तो कोई पर्वतीय प्रदेशों की सैर कर आनंद प्राप्त करता है। किसी को रात-रात भर शिकार करने में मजा मिलता है, तो किसी का ताश-शतरंज में डूबे रहने में आनंद आता है। किसी के लिए गप लड़ाना आनंददायक है, तो किसी के लिए क्लब में समय काटना, किसी को नौका-विहार में आनंद आता है, तो किसी को व्योमविहार में, किसी को थिएटर देखना भाता है, तो किसी को सिनेमा देखना।
किंतु, अध्ययन का आनंद सभी प्रकार के आनंदों में विलक्षण है। इसमें न बहुत अधिक पैसे की जरूरत है, न अधिक लश्कर जुटाने की। इसमें न तो स्वास्थ्य का क्षय है, न दूसरों के ऊपर निर्भरता का प्रश्न। शिकार के आनंद में तो हत्या की जाती है, जीवन बराबर जोखिम में रहता है, किंतु अध्ययन का आनंद बिलकुल निरामिष, निरापद आनंद है।
अच्छे-से-अच्छे मित्र दगा दे जाते हैं। उन्हें चाहकर भी हम मनोनुकूल घड़ियों में साथ नहीं रख सकते। कभी ऐसा भी होता है कि हम अपने उकताऊ मित्रों से पिंड छुड़ाना चाहते हैं, किंतु उन्हें बुरा न लग जाए, इसलिए कुछ बोल नहीं सकते। परंतु पुस्तकें ऐसा मित्र हैं, जिन्हें हम जब चाहें साथ रखें, जब चाहें छोड़ दें। वे कभी बुरा नहीं मानतीं। महात्मा गाँधी ने ठीक ही कहा है-“अच्छी पुस्तकों के पास होने पर हमें अपने भले मित्रों के साथ न रहने की कमी नहीं खटकती।”
रुचि, शिक्षा और उम्र के अनुसार भिन्न प्रकार की पुस्तकें भिन्न प्रकर के लोगों को आनंद प्रदान करती हैं। बुद्धिप्रवण व्यक्तियों के लिए गंभीर पुस्तकें आनंददायिनी होती हैं। जहाँ दूसरों के लिए गणित की पुस्तकें गौरीशंकर-शिखर पर चढ़ने जैसी कष्टप्रद होती हैं, वहाँ गणितज्ञ के लिए गणित की एक समस्या पूरी मानसिक खुराक दे जाती है। वे जब तक उसके समाधान में जुटे रहते हैं, तब तक उन्हें किसी प्रकार की पीड़ा नहीं व्यापती, किसी प्रकार की चिंता-सर्पिणी नहीं डॅसती।
रामानुजम् जब गणित का प्रश्न हल करने में तल्लीन थे, तब उनकी पीठ के घाव का ऑपरेशन कर दिया गया और उन्हें पता तक नहीं चला। चिंतक के लिए वे ही पुस्तकें आनंदप्रद होती हैं, जो चिंतन के लिए चुनौती प्रस्तुत करें, विचारों में भूकंप पैदा करें; क्योंकि “विचारों के युद्ध में पस्तकें ही अस्त्र हैं”-बर्नार्ड शॉ ने ठीक ही लिखा है। पुस्तकें, वे विश्वस्त दर्पण हैं. जो संतों और साहसिकों के मस्तिष्क का परावर्तन हमारे मस्तिष्क पर करती हैं।
हम महान मनीषियों और विचारकों के चिंतन के गोदुग्ध का पान पुस्तकों द्वारा करके संतृप्त होते हैं। एक वैज्ञानिक विज्ञान की पुस्तकों का अध्ययन कर नए-नए अनुसंधानों की दुनिया में विचरण करता है तथा जीवन-निर्माण की नवीन सामग्री का चयन करता है।
भावनाप्रधान व्यक्तियों के लिए साहित्य-सरिता का अवगाहन अधिकाधिक आनंदप्रद होता है। कभी वह शकुंतला और उर्वशी के सौंदर्य पर रीझता है, तो कभी दुष्यंत और दुर्वासा के व्यवहार पर खीझता है। कभी वह मेघ के साथ रामगिरी से अलका की यात्रा करते हए यक्षप्रिया के पास पहुँचता है, तो कभी अशोकवनवासिनी सीता के साथ सहानभति के आँसू बहाता है। कभी वह पुरुषोत्तम राम की शील, शक्ति और सौंदर्य के दर्शन करता है, कभी रावण की नृशंसता पर वक्रदृष्टि होता है।
साहित्य की दुनिया केवल भावनाओं के प्लावन की दुनिया नहीं है, वरन् चित्तवृत्तियों के परिशोधन की भी दुनिया है। ऐसे भी व्यक्ति हैं, जिनके वैयक्तिक जीवन के बहुत-से सपने अधूरे रहे, बहुत-सी इच्छाओं की परिपूर्ति नहीं हुई। कोई वात्सल्य सुख से वंचित है, तो कोई दांपत्य सुख से। साहित्य में इन भावों की ऐसी मार्मिक अभिव्यक्ति रहती है कि हम उन अतृप्त वासनाओं की सहज आपूर्ति कर पाते हैं और एक विचित्र सुख की प्राप्ति करते हैं।
ये रचनाएँ कभी तो थकान मिटाती हैं, कभी मनोरंजन करती हैं, कभी अजगर के समान भारी लगनेवाले काल की निष्ठुरता की पीड़ा को कम करती हैं, कभी विरस मन को सरस करती हैं, कभी मानसिक पीड़ा के लिए मरहम बनती हैं, कभी श्रांत-क्लांत चित्त के लिए चंदन का गाढ़ा अनुलेप बनती हैं, कभी जीवन के झुलसे मौसम में वासंती बयार बहाती हैं तथा कभी धमन-भट्ठी में वातानुकूलित कक्ष का आनंद प्रदान करती हैं।
अतः जिसने अध्ययन का रस चख लिया है, उसे जीवन की और सारी वस्तुओं का आनंद फीका और क्षणस्थायी लगेगा। जो निरक्षर हैं, अध्ययन से दूर भागनेवाले हैं, वे भला इसपर विश्वास भी कर सकेंगे?