
पर्यावरण संरक्षण का भारतीय दर्शन अथवा प्राचीन सामाजिक जीवन में प्राकृतिक संपदा की भूमिका (यू.पी. आरओ/एआरओ मुख्य परीक्षा, 2015) प्राकृतिक संपदा पर निबंध
स्वच्छ पर्यावरण को हमारे देश में प्राचीनकाल से वरीयता दी गई। सच तो यह है कि हमारा भारतीय दर्शन पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से जितना समृद्ध है, उतना किसी अन्य देश का नहीं। पर्यावरण संरक्षण का भारतीय दर्शन इतना व्यावहारिक है कि यह हमारी जीवन शैली से जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि सभी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं व प्रथाओं के मूल में कहीं न कहीं पर्यावरण सुरक्षा को महत्त्व दिया गया है। भारत में प्राचीनकाल से सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पतियों, सरिताओं और सरोवरों आदि को पूजनीय मानने की परंपरा रही है, जिसके मूल में पर्यावरण संरक्षण का भाव ही निहित है। सूर्योपासना, ग्रहों की अभ्यर्थना, अग्निपूजा एवं वृक्ष पूजा आदि की परंपराएं विकसित कर हमने सदैव पर्यावरण संरक्षण को आगे बढ़ाने का काम किया।
पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ हमारे देश में जैव विविधता को संरक्षित रखने और उसे समृद्ध बनाने पर भी पूरा ध्यान दिया गया। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में जीव-जंतुओं को हानि पहुंचाने तथा उनका भक्षण करने की अनुमति नहीं है। जीवों की उपयोगिता के अनुरूप हमने उन्हें धार्मिक और सामाजिक मान्यता प्रदान की और उनके पूजन की परंपरा शुरू कर उनके संरक्षण का संदेश दिया। गाय भारतीय समाज में आज भी पूज्य हैं। राजस्थान का विश्नोई समुदाय आज भी काले हिरनों को शुभ मानकर इन्हें पूजता है तथा इनकी रक्षा के प्रति कृतसंकल्प रहता है। भारत के अनेक आदिवासी क्षेत्रों में पशुओं, वृक्षों व वनस्पतियों आदि को पूजने की प्राचीन परंपरा है। इतना ही नहीं, आदिवासियों के वस्त्र तक प्रकृति के अनुरूप रंग बिरंगे होते हैं। इनकी जीवन-शैली में प्रकृति का पूरा प्रभाव दिखता है। हम नाग को नाग देवता कहकर ‘नागपंचमी’ जैसा त्योहार अकारण नहीं मनाते। पर्यावरण की दृष्टि से इसका अपना अलग महत्त्व है। सर्प वायुमंडल में विद्यमान जहरीली गैसों को आत्मसात कर वातावरण को प्रदूषित होने से बचाते हैं। हमारे भारतीय दर्शन में पर्यावरण को ईश्वर के प्रतिरूप के रूप में सम्मानित व संरक्षणीय माना गया है। तैत्तरीयोपनिषद् में कहा गया है—’ईश्वरीय आत्मा से आकाश की, आकाश से वायु की, वायू से अग्नि की और अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हई। पृथ्वी ने वनस्पति उपजाई, अन्न दिया और मानव जाति सहित असंख्य जीव-जंतुओं को पैदा किया। इस सृष्टि में प्रत्येक जीव-जंतु की अहम भूमिका है।’
“हमारे देश में पर्यावरण और प्रकृति प्रेम को जीवन से अभिन्न रूप से जोड़कर इसके संरक्षण के संस्कार विकसित किए गए।”
भारतीय समाज आदिकाल से पर्यावरण संरक्षक की भूमिका निभाता रहा। हमने प्रकृति प्रेम को सर्वोपरि रखा। यही कारण है कि हमारे वेद, उपनिषद् व पुराण आदि प्रकृति व पर्यावरण की महिमा से भरे पड़े हैं। अथर्ववेद के भूमिसूक्त में कहा गया है-
अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु
मातरम् औषधीनाम्
मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पितम्।
अर्थात् हे भूमि, तेरे वन हमारे लिए सुखदायी हों। भूमि तेरे वृक्षों को मैं इस तरह काटूं कि शीघ्र ही वे पुनः अंकुरित हो जाएं, सम्पूर्ण रूप से काटकर मैं तेरे मर्मस्थल पर प्रहार न करूं। भूमि को औषधियों की माता माना गया है।
पर्यावरण संरक्षण के प्रति हम प्राचीनकाल से अत्यंत सजग और चेतन रहे। इस संदर्भ में यजुर्वेद की इन पंक्तियों का उल्लेख आवश्यक है-
वनानां पतये नमः
वृक्षणां पतये नमः
औषधीनां पतये नमः
अरण्यानां पतये नमः।
उक्त पंक्तियों से यह पता चलता है कि यजुर्वेद में राष्ट्र की तरफ से वृक्षों, औषधियों एवं अरण्यों के रक्षक नियुक्त करने और उन रक्षकों को उचित सम्मान देने का निर्देश मिलता है।
हमने स्वच्छ वायु की उपादेयता और उसके महत्त्व को बहुत पहले ही समझ लिया था। तभी तो ऋग्वेद में कहा गया है
वात आ वातु भेषजं मयोभु नो हदे
यददो वात ते गृहे अमृतस्य निधिर्हितः।
वायु की महत्ता को रेखांकित करने वाली उक्त पंक्तियों से आशय यही है कि वायु हमें ऐसी औषधि दे जो शांति और आरोग्य प्रदान करे। इसमें निहित अमृत रूपी निधि हमारी आयु को बढ़ाकर हमें दीर्घजीवी बनाए। स्पष्ट है कि हमने स्वस्थ जीवन के लिए वायु के महत्त्व को समझा और इसे प्रदूषित होने से बचाने का संकल्प भी लिया।
भारत में पर्यावरण संरक्षण और प्रकृति प्रेम की जड़ें बहुत गहरी हैं, जिन्हें हम बराबर सींचते आए हैं। हमने धरती को ‘माता’ कह कर सम्बोधित किया और जीवनदायिनी नदियों को भी ‘मां’ के ही समतुल्य माना। इसके पीछे धारणा यही थी कि हम इनका संरक्षण करें, ताकि ये मानव जीवन को सुखमय बनाएं। हमने बहुत पहले इस मर्म को समझ लिया था कि मानव जीवन को बनाए रखने के लिए प्रकृति एवं पर्यावरण को संरक्षित और समृद्ध बनाए रखना नितांत आवश्यक है और इन्हें क्षति पहुंचाकर सुखद मानव जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। यही कारण है कि हम सदैव प्रकृति के प्रति आस्थानत रहे और उससे ऊर्जा और प्रेरणा प्राप्त करते रहे। जीवन के हर पहल में प्रकृति के महत्त्व को सर्वोपरि रखा। यहां तक की कर्मकांडों तक में इसकी उपेक्षा नहीं की, बल्कि इसे प्रमुखता दी। जन्म से मरण तक हम प्रकृति और पर्यावरण को साथ लेकर चले। पहले हमारे यहां यह विधान था कि जब किसी व्यक्ति की इहलीला समाप्त हो जाती थी. तो जिस स्थान पर उसकी चिता जलाई जाती थी, उसके चारों कोनों पर मरने वाले के परिजन चार वृक्ष लगाते थे। इतना ही नहीं वर्ष पर्यन्त
इन पेड़ों की देख-भाल भी परिजन करते थे और इन्हें दूध व जल से सींचते थे। ऐसा विधान किसी अन्य देश में शायद ही हो। हालांकि समय की आपाधापी, स्थानाभाव एवं जीवन-शैली में आए बदलावों के कारण यह पुरानी परंपरा अब लुप्तप्राय है और अब टहनियां गाड़ कर इस विधान को सांकेतिक रूप से पूरा किया जाता है। हालांकि आज ऐसी परंपराओं को पुनर्जीवित किए जाने की सख्त जरूरत है, ताकि धरती हरी-भरी रहे।
हमारे देश में पर्यावरण और प्रकृति प्रेम को जीवन से अभिन्न रूप से जोड़कर इसके संरक्षण के संस्कार विकसित किए गये। वृक्षारोपण को पुण्य का कार्य बताया गया। इसे संस्कार के रूप में किस तरह प्रतिपादित किया गया, इसका पता विष्णु धर्म सूत्र की इन पंक्तियों से चलता है—“एक व्यक्ति द्वारा पालित एवं पोषित वृक्ष एक पुत्र से भी अधिक महत्त्व रखता है। देवता इसके फूलों से, पथिक इसकी छाया में विश्राम कर तथा मानव इसके फलों का रसास्वादन कर इन वृक्षों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है। हमारे मनीषियों मनस्वियों ने किस प्रकार हमें वृक्षारोपण के लिए प्रेरित किया, इसका पता वराह पुराण के इस संदेश से चलता है—’पंचाम्रवाती नरकं न याति’। अर्थात् आम के पांच पौधे लगाने वाला कभी नरकगामी नहीं होता।
पर्यावरण संरक्षण के जिस भारतीय दर्शन की बुनियाद भारत के तपस्वियों, ऋषियों, मुनियों ने रखी, उसे हमारे सम्राटों व शासकों ने राजकीय संरक्षण भी दिया। उन्होंने जनहितकारी कार्यों में उन कार्यों को वरीयता दी, जो पर्यावरण संरक्षण से जुड़े थे। मसलन बड़े-बड़े सरोवरों और जलाशयों का निर्माण करवाया तथा फलदार और छायादार वृक्ष लगवाए। चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट अशोक व हर्षवर्धन जैसे सम्राटों ने तो इस दिशा में विशेष ध्यान दिया। मध्यकाल में भी शासकों ने पर्यावरण संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया और बागवानी की कला इसी काल में परवान चढ़ी। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से यहां मध्यकाल की एक घटना का उल्लेख प्रेरक होगा, जिससे यह पता चलता है कि तब विकास कार्यों को करते समय भी पर्यावरण संरक्षण का पूरा ध्यान रखा जाता था। मध्यकाल के सम्राट शेरशाह सूरी ने अपने शासनकाल में अनेक जनहितकारी कार्य किए थे, जिनमें सड़कों का निर्माण मुख्य था। उसने सबसे पहले सबसे बड़ी सड़क का निर्माण करवाया था. जो पर्वी बंगाल के सोनार गांव से शरू होकर आगरा, दिल्ली और लाहौर होती हुई सिंधु नदी पर समाप्त हुई थी। तब यह सड़क ‘सड़क-ए-आजम’ कही जाती थी, जिसे बाद में ‘ग्रांड ट्रंक रोड’ के नाम से जाना जाने लगा। इस सड़क के निर्माण के समय शेरशाह ने प्रशासनिक अमले को इस बात की सख्त हिदायत दे रखी थी कि बहुत आवश्यक होने पर ही हरे पेड़ों को काटा जाए तथा निर्माण के बाद सड़क के दोनों किनारों पर नीम, आम, अशोक, पाकड़ तथा पीपल आदि के छायादार वृक्ष लगाए जाएं। । मध्यकाल में आज की तरह पर्यावरण की समस्या नहीं थी और न ही प्रदूषण की आज जैसी भयावह स्थिति ही थी, तथापि उस समय शेरशाह ने जिस अग्रिम दृष्टि का परिचय दिया था, वह न सिर्फ श्लाघनीय है, बल्कि प्रेरक भी है। आज के संदर्भो में तो बहुत ही प्रेरक है, क्योंकि आज विकास, विनाश का पर्याय बन गया है और ऐसा करते हुए हम पर्यावरण की जमकर अनदेखी करते हैं। मध्यकाल के अन्य शासकों जैसे अकबर, शाहजहां आदि ने भी पर्यावरण संरक्षण पर पूरा ध्यान दिया और धरती को हरा-भरा रखने का प्रयास किया। कहने का आशय यह है कि हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण की जो समृद्ध परंपरा प्राचीनकाल से शुरू हुई, वह अनवरत जारी है। हर काल व दौर में हमने पर्यावरण के प्रति अपनी सजगता और चेतना को कम नहीं होने दिया। यह आज भी बनी हुई है, क्योंकि हमें हमारे दर्शन से यह सीख मिली है कि प्रकृति और पर्यावरण ईश्वर का ही प्रतिरूप है, अतएव इसके प्रति आदर व सम्मान का भाव रखकर हमें प्रकृति और पर्यावरण का संवर्धन करना चाहिए।
“शेरशाह ने प्रशासनिक अमले को इस बात की सख्त हिदायत दे रखी थी कि बहुत आवश्यक होने पर ही हरे पेड़ों को काटा जाए तथा निर्माण के बाद सड़क के दोनों किनारों पर नीम, आम, अशोक, पाकड़ तथा पीपल आदि के छायादार वृक्ष लगाए जाएं।”
प्रकृति और पर्यावरण के प्रति हमारा जो सम्मान-भाव है, जो हमें हमारे दर्शन से प्राप्त हुआ है, उसी का यह परिणाम है कि पर्यावरण की दृष्टि से विश्व के दूसरे देशों की तुलना में भारत की स्थिति आज भी बहुत अच्छी है।
आज समूचा विश्व पर्यावरण असंतुलन से उपजी अनेकानक समस्याओं से जूझ रहा है। भारत भी इन समस्याओं से दो-चार हा रहा है। स्वार्थी मनुष्य निरंतर प्रकृति का दोहन कर रहा है और ऐसा करते हुए उसका आचरण प्रकृति विरोधी हो चुका। जिस धरा को हम धरती माता कह कर संबोधित करते हैं, उसी धरा की छाती को स्वार्थ में अंधे होकर छलनी कर डाला। यहां कितनी मौजूं है कवयित्री महादेवी वर्मा की ये पंक्तियां-
कर दिया मधु और सौरभ दान सारा एक दिन
किन्तु रोता कौन है तेरे लिए दानी सुमन
मत व्यथित हो फूल, किसको सुख दिया संसार ने
स्वार्थमय सबको बनाया है यहां करतार ने।
उक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि प्रकृति तो हमें सर्वस्व प्रदान करती है, किंतु हम स्वार्थमय होकर प्रकृति का तनिक भी ख्याल नहीं रखते हैं। हमारे स्वार्थमय आचरण ने ही पर्यावरण असंतुलन जैसी वैश्विक समस्या को जन्म दिया है। पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले अधिकांश कारण मानवजनित ही हैं और इनमें विकसित देशों का विशेष योगदान है। जहां तक भारत का प्रश्न है, तो आज के संदर्भो में यह अत्यंत आवश्यक है कि हम पर्यावरण संरक्षण के अपने प्राचीन दर्शन में प्राण फूंकें और उससे विमुख न हों। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश कृषि प्रधान है। देश के किसानों का भाग्य मौसम तय करता है। मौसम ने साथ दिया तो किसानों के चेहरे खिल जाते हैं और यदि साथ न दिया तो मुरझा जाते हैं। हमारी खाद्यान्न सुरक्षा और सुख-समृद्धि के लिए मौसम की अनुकूलता नितांत आवश्यक है और इस अनुकूलता – को बनाए रखने के लिए प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षित रखना – अपरिहार्य व आवश्यक है। वैसे, ऐसा करने के लिए हमें बहुत चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हमारे पास पर्यावरण – संरक्षण के भारतीय दर्शन का ठोस धरातल विद्यमान है। आवश्यकता इस बात की है कि पर्यावरण संरक्षण का जो रास्ता हमें हमारे पूर्वजों ने दिखाया है, हम उस पर मजबूत कदम बढ़ाएं और एक बार फिर अपने वेदों, उपनिषदों की ओर लौटें। ऐसा करते हुए हम उस वैश्विक समुदाय को भी आईना दिखा सकते हैं, जो इस साझा चुनौती से निपटने में अब तक असफल रहा है। अपनी वैदिक संस्कृति के प्रसार से ऐसा करते हुए भारत ‘विश्व गुरु’ की अपनी भूमिका में वापस लौट सकता है।