
मेरे प्रिय शिक्षक पर निबंध
मैं स्वामी सहजानंद सरस्वती मंदिर की छात्रा हूं। अब तक के विद्यार्थी जीवन में मैंने जितने भी शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण की है, उन सबमें श्री दीनानाथ शर्मा मुझे सबसे प्रिय शिक्षक लगे। ये छात्रावास के भी प्रभारी हैं। मैं छात्रावास में रहती हूं। इस कारण उन्हें नजदीक से देखने का मुझे अवसर मिला। वे प्रातः चार बजे ही नित्य क्रिया से निवृत्त होकर भगवद् भजन करते हैं। फिर ठीक समय पर धोती, कुरता और चप्पल पहने एवं ललाट पर चंदन लगाए स्कूल पहुंच जाते हैं। इनका जीवन सादा और विचार उच्च हैं। तात्पर्य यह है कि शर्मा जी की वेशभूषा एक आदर्श भारतीय शिक्षक के अनुरूप है। इसके बाद शुरू होता है-हम विद्यार्थियों के साथ इनके अध्यापन का कार्य।
शर्मा जी हमें गणित तथा हिंदी पढ़ाते हैं। गणित को एक कठिन विषय माना जाता है, फिर भी ये अपने परिश्रम एवं अध्ययन से गणित के कठिन से कठिन प्रश्न को इतने सरल ढंग से समझाते हैं कि वे सुगम लगने लगते हैं। हिंदी पढ़ाते समय तो ऐसा लगता है, जैसे इनके श्रीमुख से अमृत की माधुरी टपक रही हो। इन्हें सुनकर हर विद्यार्थी भाव-विभोर हो जाता है और हिंदी का पीरियड कब समाप्त हो गया, इसका पता हम लोगों को नहीं चल पाता। हर विद्यार्थी अधिक से अधिक समय शर्मा जी से पढ़ना चाहता है।
शर्मा जी सभी को समभाव से देखते हैं। उनके लिए न कोई सूतपुत्र कर्ण है और न भीलपुत्र एकलव्य । इसी कारण वे अमीर-गरीब, हिंदू-मुसलमान तथा सिक्ख-ईसाई सभी छात्रों के बीच समान रूप से लोकप्रिय हैं। इनके एक हाथ में छड़ी और दूसरे हाथ में पुस्तक रहती है। पुस्तक से ज्ञान की किरणें निकलती हैं और छड़ी से अनुशासन की। बहुत अधिक आवश्यकता पड़ने पर ही ये छड़ी का सहारा लेते हैं। वे विद्यार्थियों की एक-एक गलती को खोजकर सुधारना चाहते हैं। ऐसे ही शिक्षकों के लिए कबीरदास ने लिखा है
गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काट्टै खोट।
अंदर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट।
इसी संदर्भ में शर्मा जी के साथ घटित एक घटना का वर्णन प्रस्तुत है हमारे विद्यालय में राजू नामक एक नटखट लड़का था। उसके नटखटपन से अध्यापक, अभिभावक एवं सहपाठी सभी परेशान थे। उसके पिता ने राजू से परेशान होकर उसे छात्रावास में भेज दिया। छात्रावास के प्रभारी होने के कारण अब राजू को सुधारने का चुनौतीपूर्ण उत्तरदायित्व शर्मा जी पर आ गया। यदि शर्मा जी राजू को ठीक रास्ते पर ले आए, तो उनकी इज्जत में चार चांद लग जाएंगे। यदि न ला सके, तो उनकी बदनामी होगी। शर्मा जी राजू को लगन से पढ़ाने लगे। मगर राजू पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था।
एक दिन शर्मा जी ने राजू से पूर्व पढ़ाए गए पाठ के विषय में पूछा। राजू उत्तर नहीं दे सका। तब शर्मा जी ने एक मोटी छड़ी मंगवाई। सभी का ध्यान शर्मा जी और राजू पर था। हम सब सोच रहे थे कि आज राजू की अच्छी पिटाई हो जाएगी। शर्मा जी राजू के पास गए और बोले, “इसमें मेरी ही गलती है कि मैं तुम्हें अच्छी तरह नहीं पढ़ा सका। इसलिए यह छड़ी लो और मुझे दंड दो।” राजू उनकी बातों से पानी-पानी हो गया। वह शर्मा जी के पैरों पर गिरकर रोने लगा। इस घटना से राजू के जीवन में परिवर्तन आ गया। वह अगली परीक्षा में प्रथम आया। यह है-शर्मा जी की शिक्षा देने की कला।।
शर्मा जी अध्यापक के साथ-साथ अभिभावक की भी भूमिका निभाते हैं। जब कोई विद्यार्थी बीमार हो जाता, तब वे सारी रात जागकर उसकी सेवा करते। पढ़ाई के साथ-साथ ये चरित्र निर्माण पर भी विशेष जोर देते हैं। शर्मा जी कहते हैं कि समाज में व्यावहारिक रहना चाहिए, बड़ों का आदर करना चाहिए तथा बराबर वालों के साथ मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार शर्मा जी के मार्गदर्शन में विद्यार्थियों का चतुर्दिक विकास हो रहा है।