
भिखारी पर निबंध|Essay on Beggar in Hindi
चूसकर फेंके गए आम-से ओठ, किसी अबाबील के घोंसले-से बन गए बाल, पीपल-कोटर-सी धंसी आँखें, धरती को उठा लेने के लिए वराह-से निकले दाँत, अंतिम ‘आहुति डाल देने के लिए जीर्ण-शीर्ण काठ के कलछुल-से हाथ तथा लड़खड़ाकर गिर पड़नेवाले बबूल के काँटें-से पाँव और कठबोगने-सी आकृतिवाले जब किसी ने आवाज दी, ‘एक पैसा दे दो बाबूजी ! दाता का भला करे भगवान !’ तो उसे देखकर निराला की कविता सहसा साकार हो उठी
वह आता
दो टूक कलेजे को करता
पछताता पथ पर आता।
हैं पेट-पीठ मिलकर दोनों एक,
चल रहा लकुटिया टेक मुट्ठी भर दाने को,
भूख मिटाने को
मुँहफटी पुरानी झोली को फैलाता।
और तब मन में विचारों का सैलाब-सा उमड़ पड़ा। आखिर इन लोगों को इस स्थिति में लाने का उत्तरदायी कौन है? इंगलैंड और रूस जैसे देशों में तो यह घिनौनी स्थिति नहीं है। देश का एक व्यक्ति गद्दी पर सोए, छप्पन भोगों को सूंघकर छोड़ दे और दूसरा व्यक्ति चने के चार दाने के लिए दर-दर ठोकरें खाए-आकाश-पाताल का यह अंतर कितना बड़ा अनर्थ है।
एक, जायज-नाजायज तरीके से धन बटोरकर’ कुबेरकोष को ललचाए, और दूसरा, दिनभर एड़ी-चोटी का पसीना एक करके भी इतना भोजन प्राप्त कर सके कि अंत में पोषण तत्त्वों के अभाव में अपाहिज बन जाए ! उस अपाहिज-अपंग को कोई काम न मिले और इस राक्षस पेट की आग बुझाने के लिए वह दूसरों की नींद हराम करे और अपनी झोली में लाख-लाख गालियों का उपहार लेकर लोट-लाख-लाख दुर्वचनों के शेर से घायल होकर किसी सुनसान कोने में कराहा करे ! सचमुच, मानवता के दामन में यह इतना बड़ा कलंक है कि यदि हम इसे पोछे नहीं देते, तो मानव कहलाने के अधिकारी नहीं हैं।
याचकवृत्ति की बड़ी निंदा की जाती रही है। हाँ, जिसकी भुजाओं में शक्ति हो, जिसके हृदय में आत्मसम्मान की ज्योति जल रही हो, उसके लिए भिक्षाटन पाप अवश्य है। आचार्य विनोबा भावे ने ठीक ही कहा है कि तगड़े और तंदुरुस्त को भीख देना, दान करना अन्याय है। जो भिखारी भीख माँगते चलते हैं, दिन-रात भिक्षावृत्ति के नए-नए स्वांग रचते हैं, रात में सिनेमा देखते हैं और घरों में मनीआर्डर भेजते हैं, वे पेशेवर भिखारी कामचोर हैं, वंचक हैं। वे हमारी घृणा के ही पात्र नहीं, दंड के भी पात्र हैं। इन आलसियों से तो जेल में चक्की पिसवानी चाहिए। हम भारतवासी जो अनादिकाल से दान देते रहे हैं और आज समर्थ-सक्षम होकर भी विश्व के समक्ष अन्न-धन के लिए झोली फैला रहे हैं, क्या वैसे भी पाप और दंड के पात्र नहीं हैं?
कबीरदास ने बहुत पहले भिक्षा न माँगने की शिक्षा दी थी। उन्होंने कहा था-
माँगन मरन समान है, मति कोई माँगो भीख।
माँगन से मरना भला, यह सतगुरु की सीख ।।
संस्कत की एक सूक्ति में काक जैसे लालची पक्षी को भी भिक्षुक से श्रेष्ठ बताया गया है
काक आह्वयते काकान् याचको न तु याचकान्।
काकयाचकयोर्मध्ये वरं काको न याचकः ।।
किंतु, जो लाचार-विवश हैं, उन्हें गरजते सावन, बरसते भादो, उबलते जेठ तथा जमते माघ गली-गली, द्वार-द्वार एक मुट्ठी दाने के लिए दीन बने फिरना ही पड़ता है। वे कितने असहाय और अपंग हैं, जिनके लिए भिक्षावृत्ति के सिवा और कोई आधार ही नहीं। उनपर कबीरदास के उपदेश और संस्कृत के उपर्युक्त कथन का आखिर क्या प्रभाव पड़ेगा? गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-“आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की” अतः, जब तक हम स्वेच्छया दान नहीं करते या सरकार ऐसा प्रबंध नहीं करती कि कोई भूखा न रह जाए, किसी को याचक बनने की आवश्यकता न रह जाए, तब तक यह हेय कर्म चलता रहेगा और मानव मानव की दुर्गति देखता रहेगा।