
Essay in hindi for ias exam -लोक-सेवा प्रसारण और जन-भागीदारी
वस्तुतः लोक रुचियों और लोकहितों को साथ लेकर चलने वाली प्रसारण की प्रणाली ही लोक सेवा प्रसारण के दायरे में आती है। जब इसमें ‘लोक’ है, तो ‘जन’ का होना स्वाभाविक ही है। सच तो यह है कि लोकसेवा प्रसारण की इमारत ही जन-भागीदारी कीबुनियाद पर खड़ी की गई है। इसने जहां राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नागरिकता को प्रोत्साहित किया, वहीं सूचना शिक्षा और मनोरंजन के क्षेत्र में भी महती भूमिका निभाई। लोकसेवा प्रसारण पर्णतः लोक व सार्वजनिक हितों के प्रति समर्पित होता है तथा इसकाउद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता है। यह एक अलाभकारी प्रसारण सेवा है। व्यावसायिक हितों से परे रहते हुये पूरी स्वतंत्रता और निष्पक्षता के साथ जन-भागीदारी को प्रोत्साहित करना इसका उद्देश्य होता है।
“वस्तुतः लोक रुचियों और लोकहितों को साथ लेकर चलने वाली प्रसारण की प्रणाली ही लोक सेवा प्रसारण के दायरे में आती है।”
लोकसेवा प्रसारण और जन-भागीदारी के बीच सदैव अभिन्न रिश्ता रहा। यह कहना असंगत न होगा कि दोनों एक-दूसरे के पूरक रहे। तभी तो जहां इन सेवाओं की सार्वभौमिकता की तरफ विशेष रूप से ध्यान दिया गया, वहीं कार्यक्रमों के वैविध्य को भी केंद्र में रखा गया, ताकि अधिकतम जनभागीदारी इसमें सुनिश्चित हो। जनभागीदारी को ही प्रभावी बनाने के लिए जहां वंचित वर्ग तक इसकी पहुंच को विस्तारित किया गया, वहीं इसके कार्यक्रमों में अल्पसंख्यक श्रोताओं का पूरा ध्यान रखा गया। इसी क्रम में जहां मतदाताओं को जागरूक कर उन तक महत्त्वपूर्ण सूचनाएं पहुंचाई, वहीं शैक्षणिक व सांस्कृतिक स्तरों पर इसने आम आदमी के लिये व्यापक योगदान दिया। लोकसेवा प्रसारण के तहत ऐसे उपाय सुनिश्चित किये गये कि इसकी पहुंच निचले तबके तक पहुंचे। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि इसका स्वरूप समावेशी रहा और समावेशिता की दृष्टि से इसने प्रभावी भूमिका निभाई।
लोकसेवा प्रसारण का श्रेय ‘ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन’ को जाता है और इसकी शुरुआत वर्ष 1927 से मानी जाती है। तब इसे राजनीतिक व व्यावसायिक प्रभावों से मुक्त रखने की बात भी कही गई थी। इससे यह अपेक्षा की गई थी कि यह राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखकर उन कार्यक्रमों को प्राथमिकता देगा, जो शिक्षा व संस्कृति से जुड़े होंगे। इसी तर्ज पर कुछ अन्य संगठन भी अस्तित्व में आए। मसलन, डेनिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरशेन, नीदरलैंड ब्रॉडकास्टिंग फाउंडेशन, रेडियो न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन तथा केनेडियन ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन आदि। भारत में लोकसेवा प्रसारण का प्रादुर्भाव ‘ऑल इंडिया रेडियो’ (आकाशवाणी) तथा ‘दूरदर्शन’ के आने पर हुआ और इन माध्यमों ने लोकसेवा प्रसारक के रूप में अपनी भूमिका सुनिश्चित की। बाद में ‘प्रसारभारती’ के रूप में देश में मुख्य लोकसेवा प्रसारक का आविर्भाव हुआ तथा इसने केंद्रीय रूप से लोकसेवा प्रसारक के रूप में अपनी भूमिका को सुनिश्चित किया। वर्ष 1990 में ‘प्रसारभारती’ कानून बना और इसे वर्ष 1997 में लाग किया गया। आकाशवाणी और दरदर्शन इसी के घटक हैं। बाद में आकाशवाणी और दूरदर्शन के अलावा कुछ अन्य संस्थाएं भी लोकसेवा प्रसारण के क्षेत्र में आईं। मसलन ‘पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टिंग ट्रस्ट’ आदि। इसी बीच सामुदायिक रेडियो की अवधारणा तथा भारत में इसके सूत्रपात ने लोकसेवा प्रसारण को संबल प्रदान किया। इन विस्तारों से भारत में लोकसेवा प्रसारण के स्वरूप में निखार आया और इसका फलक विस्तृत हुआ।
भारत में लोकसेवा प्रसारण के क्षेत्र में ‘ऑल इंडिया रेडियो’ (आकाशवाणी) की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही और इसने जनभागीदारी को मुखरता प्रदान की। यह कहना असंगत न होगा कि ऑल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) ने लोकसेवा प्रसारण के क्षेत्र में फर्श से अर्श का सफर तय किया और अपनी विस्तार यात्रा के द्वारा‘जन’ के हर वर्ग के बीच में ऐसी पैठ बनाई कि इसके प्रसारण जनके निर्माण में महत्त्वपूर्ण साबित हुए। लोकसेवा प्रसारक की दृष्टि से ‘ऑल इंडिया रेडियो’, जिसका कि वर्ष 1957 में दिया गया हिन्दी नाम ‘आकाशवाणी’ है, का सफरनामा भारत में बहुत शानदार रहा। जिस समय हम स्वतंत्र हुए थे, उस समय एआईआर की स्थिति न तोबहुत सुदृढ़ थी और न ही इसका व्यापक विस्तार ही हुआ था। वर्ष 1947 में पाकिस्तान के विभाजन के साथ भारत स्वतंत्र हुआ था।इस समय आजाद, किंतु विभाजित भारत के पास एआईआर के मात्र 6 रेडियो केंद्र ही थे। इसी प्रकार ट्रांसमीटरों की संख्या भी मात्र 18 थी। जाहिर है, ऐसे में प्रसार क्षेत्र भी अधिक नहीं था। देश की मात्र 11% जनता ही तब इसके प्रसारणों को सुन पाती थी और इस कार्यक्रम को देश के मात्र 2.5% क्षेत्रफल को ही कवर कर पाते थे। सच यह है कि स्वतंत्रता के बाद यदि यथेष्ट प्रगति की, तो संचार के इसी माध्यम ने। मौजूदा दौर में इसका व्यापक विस्तार हो चुका है, जिसका पता इसी से चलता है कि वर्तमान में इसके प्रसारण केंद्रों की संख्या जहां 400 तक जा पहुंची है, वहीं इसके 200 से ज्यादा केंद्र कार्यक्रमों के नियमित निर्माण में सक्षम भी हैं। देखते ही देखते आकाशवाणी ने पूरे देश को घेर लिया और आकाशवाणी लोकसेवा प्रसारण के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हई। आज देश की लगभग शत-प्रतिशत जनता जहां इसके कार्यक्रमों को सुनती है, वहीं 91.9.20 क्षेत्रफल को यह समेट चुकी है। 23 भाषाओं और 146 बोलिया में होने वाले इसके प्रसारण इसमें प्रचंड जनभागीदारी के योग इसकी उर्दू सर्विस का भी एक लंबा-चौड़ा दायरा है। लोक प्रसारण का यह माध्यम नई तकनीक के साथ आगे बढ़ा और पार की जरूरतों को ध्यान में रखकर इसने बदलाव भी किये। यही कार है कि यह संचार माध्यम न सिर्फ इंटरनेट तक अपनी पहंच बना चुका है, बल्कि ‘डिजिटलाइजेशन’ द्वारा अपने प्रसारणों को अधिक सजीवता भी प्रदान कर चुका है। इसके सभी लोकप्रिय व महत्त्वपर्ण कार्यक्रम इंटरनेट पर मौजूद हैं। भारत में लोकसेवा प्रसारण के इस माध्यम ने सदैव अपनी गुणवत्ता को बनाए रखा, जो कि आज इसकी पहचान बन गया है। लोकसेवा प्रसारण की दृष्टि से दूरदर्शन ने भी यथेष्ट प्रगति की और जनभागीदारी को प्रोत्साहित किया, किंतु तहज़ीब की सोंधी सुगंध के मामले में एआईआर (आकाशवाणी) कसौटी पर ज्यादा खरा उतरा। संभवतः ऐसा वाचन की उन समृद्ध परंपराओं के कारण संभव हुआ, जिसमें भाषा को विशेष अहमीयत दी गई, क्योंकि यह हमारी जमीन से जुड़ी होती है। भारत की भाषाई विविधता का लाभ रेडियो को मिला।
“लोकसेवा प्रसारकों के रूप में आकाशवाणी और दूरदर्शन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इन्हें सरकारी, नौकरशाही व व्यावसायिक दबावों से मुक्त रखा जाए।”
एआईआर ने विविध रुचियों, विविध भाषाओं, सांस्कृतिक व सामाजिक वैविध्य, बहसामाजिकता, मनोरंजन, साहित्य, शिक्षा का खेल, विज्ञान, कला आदि का भरपूर ध्यान रखकर जनभागादा प्रतिमान कायम किये। इसने प्रांतों की भी उपेक्षा नहीं की आरा प्रसारण सेवाओं का सूत्रपात कर सभी प्रांतों को प्रतिनिधित्व किया। बाजारवाद से खुद को अप्रभावित रखते हुए सदैव अपनीगुणवत्ता को इस तरह से कायम रखा कि घटियापन इसे छू नहीं पाया। जनभागीदारी को लेकर इसकी पहल सदैव रचनात्मक रहीऔर कोई भी वर्ग इसके प्रसारणों से अछूता न रहा। भारत के ग्रामीण परिवेश को ध्यान में रखकर जहां कृषि जगत को इसमें पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला, वहीं शहरी क्षेत्रों की उपेक्षा भी इसने कभी नहीं की। गांव, कस्बों, शहरों को जोड़कर तो इस लोकसेवा प्रसारक ने मिसाल पेश ही की, हर आयु वर्ग के लोगों का भी ख्याल रखा। फिर चाहे वे बच्चे हों, युवा हों या वृद्ध। महिलाओं से जुड़े प्रसारण भी सराहनीय रहे और उनकी पर्याप्त भागदारी एआईआर (आकाशवाणी) के कार्यक्रमों में बराबर बनी रही। नारी सशक्तिकरण हो या नारी जागरूकता, हर कसौटी पर इसके प्रसारण खरे उतरे और इस प्रकार इसने समाज को बहुत कुछ दिया। राष्ट्रीयता को बढ़ाया, तो जनजागृति का सूत्रपात करते हुए जनमानस को जड़ता से मुक्त कराया। सामाजिक रूढ़ियों व जड़ता के विरुद्ध एक सकारात्मक माहौल निर्मित करते हुए समाज को परिष्कृत किया। इसने सरकारी नीतियों, दिशा-निर्देशों, कल्याणकारी योजनाओं-परियोजनाओं, संसद में बनने वाले कानूनों, विधिक सुधारों व पंचवर्षीय योजनाओं आदि के बारे में जन-जन को अवगत करवाकर जनभागीदारी की अवधारणा को सार्थकता प्रदान की। इस तरह संसदीय लोकतंत्र, जो सर्वोत्कृष्ट लोकतंत्र माना जाता है, की जड़ों को सींचने का काम किया। यह सच है कि जनभागीदारी का प्रोत्साहित करने में दूरदर्शन की भूमिका भी संतोषजनक रही, किंतु उतना ही सच यह है कि दूरदर्शन, एआईआर (आकाशवाणी) के पाछ ही आया और इसके पीछे ही चला। यानी दरदर्शन ने आकाशवाणी का अनुसरण तो किया. किंत यह इसके बराबर नहीं आ पाया। बाजारवाद ने जिस तरह से दरदर्शन को प्रभावित किया, उस तरह वहआकाशवाणी को प्रभावित नहीं कर पाया। यही आकाशवाणी की सबसे बड़ी विशेषता है, जो कि लोकसेवा प्रसारक के रूप में उसे दूरदर्शन से अधिक श्रेष्ठ साबित करती है। मुनाफा कमाने के लिए आकाशवाणी ने आचार संहिता से समझौता नहीं किया। इसकी अंतर्वस्तु में आम आदमी से जुड़े सरोकार पूरी शिद्दत से मौजूद रहे।
यह सच है कि भारत में लोकसेवा प्रसारक के रूप में आकाशवाणी और दूरदर्शन ने उच्च मुकाम हासिल किया, तथापि कुछ असंगतियों से ये दोनों ही नहीं बच पाए। इन दोनों पर ये आरोप लगते रहे कि ये सरकार के ‘भोंपू’ हैं। यानी सरकारी नियंत्रण से ये मुक्त नहीं हैं और इनकी भूमिका सरकार की अच्छी छवि बनाने में ज्यादा रहती है। इसकी वजह से ये लोकसेवा प्रसारकों के रूप में बहुत प्रभावी भूमिका नहीं निभा पाते और सरकारी दबाव में रहने के कारण सरकारी दिशा निर्देशों के आगे घुटने टेकते रहते हैं। प्रसारभारती के अस्तित्व मेंआने के बाद यह सोचा गया था कि प्रसार के ये माध्यम अधिक स्वायत्त व स्वतंत्र होंगे, किंतु ऐसा हो नहीं पाया। सरकारी दबाव और नौकरशाही के शिकंजे से ये उबर नहीं पाए। एक सीमा तक यह आलोच्य बिन्दु ठीक भी है।
लोकसेवा प्रसारकों के रूप में आकाशवाणी और दूरदर्शन को अधिक प्रभावी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि इन्हें सरकारी, नौकरशाही व व्यावसायिक दबावों से मुक्त रखा जाए और ये अपने स्वायत्त स्वरूप में जनभागीदारी के लिए अधिक से अधिक स्वतंत्र रूप से काम कर सकें और रचनात्मक पहले सुनिश्चित करें। ऐसा होनेपर ये ‘लोगों का, लोगों के लिए, और लोगों द्वारा की अवधारणा को सही अर्थों में साकार करते हुए भारतीय लोकतंत्र को जीवंतता भी प्रदान कर सकेंगे।