
लुई पाश्चर की जीवनी | Biography of Louis Pasteur in Hindi
फ्रांस के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक लुईस पास्चर का जन्म सन् 1822 ई० में नैपोलियन बोनापार्ट के एक व्यवसायी सैनिक के यहाँ हुआ था। उनका स्वभाव बचपन से ही दयालु प्रकृति का था। उन्होंने अपने शैशवकाल में गांव के 8 व्यक्तियों को पागल भेड़िये के काटने से मरते हुए देखा। उन व्यक्तियों की दर्दभरी चीखों को वह कभीभुला नहीं सके। युवावस्था में भी जब यह अतीत की घटना स्मृति पटल पर छा जाती थी, तो लुई बेचैन हो जाते थे। उनकी बुद्धि पढ़ने-लिखने में काफी तेज नहीं थी, लेकिन उनमें दो गुण ऐसे विद्यमान थे जो विज्ञान में सफलता के लिए आवश्यक होते हैं उत्सुकता एवं धीरज।
युवावस्था में उन्होंने लिखा था कि शब्दकोष में तीन शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं : इच्छाशक्ति, काम और सफलता। कॉलेज की पढ़ाई समाप्त कर, लुई ने अपनी लक्ष्य प्राप्ति के लिए रसायनशाला में कार्य करना शुरू कर दिया। यहाँ पर उन्होंने क्रिस्टलोंका अध्ययन किया और कुछ महत्त्वपूर्ण अनुसंधान भी किए। इनसे रसायनज्ञ के रूप में उनको अच्छा यश मिलने लग गया।
सन् 1849 ई० में फ्रांस के शिक्षा मंत्री ने लुईस को दिजोन के विद्यालय में भौतिकी पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया। एक साल के बाद उनको स्ट्रॉसबर्ग विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान का स्थानापन्न प्राध्यापक बना दिया गया। उस उन्नति का रहस्य था कि विश्वविद्यालय अध्यक्ष की एक पुत्री थी, जिसका नाम मेरी था। मेरी श्यामल केशों वाली सुन्दर किशोरी थी। लुईस की भेंट मेरी से हुई व मेरी का अछूता लावण्य उनके हृदय में घर कर गया। भेंट के एक सप्ताह पश्चात् ही उन्होंने मेरी के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया।
लुईस के प्रस्ताव को मेरी ने स्वीकार नहीं किया। परन्तु लुईस पाश्चर भी एक अच्छे वैज्ञानिक थे और उनमें धीरजता का गुण विद्यमान था। मेरी के इंकार करने के बाद भी उनका प्रयास चलता रहा। एक वर्ष पश्चात् उनको अपनी इच्छापूर्ति में सफलता प्राप्त हुई, जिसके फलतः मेरी ने उनकी पत्नी बनाना स्वीकार कर लिया।
विवाह के बाद उनकी रुचि रसायन विज्ञान से हटकर कर जीव विज्ञान की ओर अग्रसर होने लगी। यह जीवधारियों का विज्ञान है। लुईस जिस विद्यालय में पढ़ा रहे थे यह विश्वविद्यालय फ्रांस के अंगूर उत्पादक क्षेत्र के मध्य में है। एक दिन, वहाँ के मदिरा तैयार करने वालों का एक दल लुईस पाश्चर से मिलने आया। उन्होंने लुईस से प्रश्न किया कि प्रत्येक वर्ष हमारी शराब खट्टी हो जाती है, इसका क्या कारण है?
लुईस पाश्चर ने अपने सूक्ष्मदर्शी यंत्र द्वारा मदिरा की परीक्षा करने में घण्टों बिता दिए। अंत में उन्होंने पाया कि जीवाणु नामक अत्यन्त नन्हें जीव मदिरा को खट्टी कर देते हैं। आगे उन्होंने पता लगाया कि यदि मदिरा को 20-30 मिनट तक 60 सेंटीग्रेड पर गरम किया जाता है, तो ये जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। 60 सेंडीग्रेड ताप, उबलने के ताप से नीचा है। इससे मदिरा के स्वाद पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। बाद में उन्होंने दूध को मीठा एवं शुद्ध बनाए रखने के लिए भी इसी सिद्धान्त का उपयोग किया। यही दूध ‘पाश्चरित दूध’ कहलाता है।
एक दिन लुईस को सूझा कि अगर ये नन्हें जीवाणु खाद्यों एवं द्रव्यों में होते हैं, तो ये जीवित जंतुओं तथा लोगों के रक्त में भी हो सकते हैं। वे बीमारी पैदा करने में सहायक हो सकते है। फ्रांस में उन्हीं दिनों मुर्गियों में ‘चूजो का हैजा’ नामक एक भयंकर महामारी फैली हुई थी। लाखों चूजे मर रहे थे। मुर्गी पालने वालों ने उनसे प्रार्थना की कि हमारी सहायता कीजिए। उन्होंने उस जीवाणु की खोज शुरू कर दी जो चूजों में हैजा फैला रहा था।
उन्हें वे जीवाणु मरे हुए चूजों के शरीर के रक्त में इधर-उधर तैरते हुइ दिखाई दिए। उन्होंने उस जीवाणु को दुर्बल बनाया और इंजेक्शन के माध्यम से स्वस्थ चूजों की देह में पहुँचाया। इससे वेक्सीन लगे हुए चूजों को हैजा नहीं हुआ। लुईस ने टीका लगाने की विधि का आविष्कार नहीं किया पर चूजों के हैजे के जीवाणुओं का पतालगा लिया। इसके पश्चात् लुईस पाश्चर ने गायों और भेड़ों के ऐन्धैक्स नामक रोग के लिए वैक्सीन बनायी, मगर उनमें रोग हो जाने के पश्चात् वह उन्हें अच्छा नहीं कर सके। परन्तु रोग के होने से रोकने में उनको सफलता मिल गई। उन्होंने भेड़ों के दुर्बल किए हुए ऐन्थैक्स जीवाणुओं को सुई लगाई। इससे हल्का बुखार होता था पर वे कभी बीमार नहीं पड़ती थीं और उसके बाद कभी वह घातक रोग उन्हें नहीं होता था। उन्होंने और उनके सहयोगियों ने मासों फ्रांस में घूमकर सहस्रों भेड़ों को यह सुई लगाई। इससे फ्रांस के गौ एवं भेड़ उद्योगों की रक्षा हुई।
उन्होंने तरह-तरह के सहस्रों प्रयोग किये। जिनमें बहुत से खतरनाक भी थे। वह विषैले वाइरस वाले भयानक कुत्तों पर काम कर रहे थे। अंत में उन्होंने इस समस्या का हल निकाल लिया। लुई ने थोड़े से विषैले वाइरस को दुर्बल बनाया। फिर उससे इस वाइरस का टीका तैयार किया। इस टीके को उन्होंने एक स्वस्थ कुत्ते की देह में पहुँचाया। टीके की 14 सुइयाँ लगने के बाद रैबीज के प्रति रक्षित हो गया। उनकी यह खोज बड़ी महत्त्वपूर्ण थी। मगर मानव पर उन्होंने अभी प्रयोग नहीं किया था।
सन् 1885 ई० में एक दिन लुईस पाश्चर अपनी प्रयोगशाला में बैठे हुए थे, एक फ्रांसीसी महिला अपने नौ वर्षीय पुत्र जोजेफ को लेकर उनके पास पहुँची। उस बच्चे को दो दिन पहले एक पागल कुत्ते ने काटा था। पागल कुत्ते की लार में नन्हें जीवाणु होते हैं जो रैबीज वायरस कहलाते हैं। यदि कुछ नहीं किया जाता तो 9 वर्षीय जोजेफ धीरे-धीरे जलसंत्रास से तड़प कर जान दे देता।
उन्होंने बालक जोजेफ की परीक्षा की, कदाचित् उसे बचाने का कोई उपाय किया जा सकता था, वर्षों से वह इस बात का पता लगाने का प्रयास कर रहे थे कि जलसंत्रास को कैसे रोका जाए? उन्हें इस रोग से विशेष रूप से घृणा थी। अब सवाल यह था कि बालक जोजेफ के रैबीज वैक्सीन की सुइयाँ लगाने की हिम्मत करें अथवा नहीं। बालक की मृत्यु की सम्भावना थी। पर सुइयाँ न लगने पर भी उसकी मृत्यु निश्चित थी। इस दुविधा में उन्होंने तत्काल निर्णय ले लिया और बालक जोजेफ का उपचार करना शुरू कर दिया। लुईस कई दिन तक बालक जोजेफ के वैक्सीन की बढ़ती मात्रा की सुइयाँ लगाते रहे और तब महान आश्चर्य की बात हुई बालक जोजेफ को जलसंत्रास नहीं हुआ। इसके विपरीत वह स्वस्थ होने लगा। इतिहास में प्रथम बार मानव को जलसंत्रास से बचाने के लिये सुई लगाई गई। उन्होंने वास्तव में मानव जाति को यह अनोखा उपहार दिया।
उनके देशवासियों ने उनको सब सम्मान एवं सब पदक प्रदान किए। उन्होंने उनके सम्मान में ‘पाश्चर इंस्टीट्यूट’ का निर्माण किया। किन्तु कीर्ति एवं ऐश्वर्य से उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया। वह जीवनपर्यन्त, सदैव रोगों को रोक कर पीड़ा हरण के उपायों की खोज में लगे रहे। 28 सितम्बर सन् 1895 ई० में उनकी निद्रावस्था में ही मृत्यु हो गई। तब उनकी आयु 73 वर्ष थी।