
सम्राट विक्रमादित्य की जीवनी और इतिहास | Biography and History of Emperor Vikramaditya
सम्राट समुद्रगुप्त का पुत्र चन्द्रगुप्त था, जिसे पूर्व के चन्द्रगुप्त नाम के राजाओं से अलग पहचान देने के लिए इतिहास लेखकों ने उसे ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य’ नाम दिया है। समुद्रगुप्त के निधन के तुरन्त बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय सिंहासनासीन हुआ। सम्भवतः पटरानी दन्तदेवी से उत्पन्न वह द्वितीय पुत्र था। प्रथम पुत्र रामगुप्त था।
ज्येष्ठ होने के कारण समुद्रगुप्त के निधन के बाद रामगुप्त को उत्तराधिकार के रूप में विशाल साम्राज्य मिला; पर जैसा कि सत्तासीन होने के बाद ही परिस्थितियां सामने आयीं, उसने समुद्रगुप्त जैसे दिग्विजयी शासन के उत्तराधिकारी शासक को कायर, भीरू, अयोग्य शासक सिद्ध किया। रामगुप्त कुछ ही समय सत्तासीन रहा; पर समुन्द्र गुप्त जैसे महान् सम्राट के पुत्र को अपेक्षा के विपरीत पाने पर उसकी निन्दा में अनेक ग्रंथ लिखे गए।
ये ग्रन्थ है-‘हर्ष चरित’, ‘शृंगार प्रकाश’ ‘नाट्य-दर्पण’, ‘काव्य मीमांसा’। महाकवि बाण के हर्षचरित नाटक में लिखा गया है- “दूसरे की पत्नी का कामुक शकपति कामिनी-वेशधारी चन्द्रगुप्त द्वारा मारा गया।
राजा अमोध के ताम्रपत्र में भी इस कथा का निर्देश किया गया है। अरब-लेखकों ने भी इस कथा को लेकर पुस्तकें लिखीं। अरबी साहित्य के आधार पर इस कथानक को फारसी साहित्य में भी लिखा गया है। बारहवीं सदी में भी अब्दुल हसन अली नाम के एक लेखक ने इस कथा को ‘मजतमुलतवारीख’ नामक पुस्तक में लिखा है। वह भीरू और कायर था, अवश्य ही उसके ये दुर्गुण पहले से ही साम्राज्य के आधीन राजाओं को ज्ञात थे।
समुद्रगुप्त का निधन होते ही तथा उत्तराधिकारी के रूप के चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिंहासनासीन होते ही, अधीन राजा स्वतंत्र होने लगे। अपनी स्वाधीनता की सबसे पहले और प्रबल रूप से शकों ने घोषणा की। उन्होंने न सिर्फ अपनी स्वाधीनता की घोषणा की, बल्कि साम्राज्य की सीमा में घुस आये और रामगुप्त को युद्ध की चुनौती दी।
शकों के आक्रमण से भयभीत होकर राम गुप्त ने युद्ध भूमि में उतरने के बजाय उनके सामने संधि का प्रस्ताव रखा।
शकराज ने रामगुप्त की संधि के प्रस्ताव में जो एक शर्त रखी, वह अपने आप में विलक्षण और इतिहास में प्रथम थी। शकराज ने राजा रामगुप्त की पटरानी ‘ध्रुवदेवी’ अथवा ध्रुवस्वामिनी के रूप सौन्दर्य की काफी प्रशंसा सुन रखी थी। उसने अपनी विलक्षण संधि शर्त में पहला प्रस्ताव यही रखा कि अपनी पटरानी ध्रुवस्वामिनी को वह उसे सौंप दे। कायर रामगुप्त उसकी शर्त मानकर, अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को पालकी में बिठाकर शकराज के पास भेजने को तैयार हो गया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का उदय
चन्द्रगुप्त को जब इस बात का पता चला कि उसका बड़ा भाई रामगुप्त शकों के साम्राज्य की सीमा में घुस आने पर उनसे युद्ध करने के बजाय, शकराज की संधि शर्त मानकर अपनी पत्नी (उसनी भाभी) को उसे सौंपने जा रहा है। कुल के सम्मान की अपेक्षा कर राज्य बचाने की अधिक चिंता कर रहा है, तो उसका खून खौल उठा। उसकी रगों में जिस यशस्वी, बलशाली राजा समुद्रगुप्त का रक्त दौड़ रहा था उसने उसे उत्साहित किया कि प्राण देकर भी यदि कुल सम्मान की रक्षा हो सके तो करे, यह गौरव की बात है।
उसने कुल सम्मान की रक्षा के लिए स्वयं तथा अपने अंगरक्षक वीर सैनिकों को नारीवेश धारण किया तथा कराया। अपने भाई के बताए गए स्थान के लिए वह अपने अंगरक्षकों के साथ बाहर निकल, शीघ्रता से उस स्थान पर पहुंच गया, जहां ध्रुवस्वामिनी की डोली लिए राज्यकर्मी उसे शकराज को सौंपने जा रहे थे। मार्ग में उसने अपनी भाभी के सम्मान रक्षा के लिए, उसे डोली से उतारकर उसमें खुद सवार हो गया। अपने अंगरक्षकों को रानी की दासियों के रूप में डोली में साथ रखा।
‘ध्रुवस्वामिनी कथा’ के अनुसार उसकी डोली शकराज के सामने पहुंची। शकराज जब नारी सम्मान पर हाथ डालने आगे बढ़ा, तो चन्द्रगुप्त एक झटके से पुरुष भेष में खड़ा हो। तलवार निकाल ली तथा शकराज से डटकर मुकाबला कर उसका सिर काट डाला। शकराज के मरते ही, उसने शिविर से बाहर आ शक सेना पर आक्रमण कर दिया। दासियों के रूप में शिविर में आये उसके अंगरक्षकों ने भी तलवार खींच ली। भयानक युद्ध छिड़ गया। अनेक शकों को मार डाला गया-ऐसे में एक ओर से शोर उठा-शकराज महाराज की हत्या हो चुकी है। शकराज के मारे जाने का शोर उठते ही शक सेना के पैर उखड़ गये। उन्होंने न सिर्फ युद्धभूमि से ही बल्कि साम्राज्य सीमा से ही भागकर अपनी जान बचा जाना श्रेष्ठ समझा। इस सम्बन्ध में कहा जाता है कि यह घटना मथुरा नगर के आसपास किसी स्थान पर घटित हुई। ।
दूसरी ओर, रामगुप्त को जब यह मालूम हुआ कि ध्रुवस्वामिनी के स्थान पर चन्द्रगुप्त खुद शकराज के पास गया है तो वह अपने विनाश की आशंका से ग्रस्त होकर चन्द्रगुप्त की ओर दौड़ा, यद्यपि शक सेना भाग चुकी थी, चन्द्रगुप्त विजेता हो चुका था, फिर भी आशंकित रामगुप्त, चन्द्रगुप्त की ओर तलवार लेकर दौड़ा। दोनों की तलवारें टकरायीं-वीर चन्द्रगुप्त की तलवार के आगे कायर रामगुप्त की तलवार कहां तक ठहरने वाली थी। रामगुप्त मारा गया। रामगुप्त के मारे जाते ही सारी सेना चन्द्रगुप्त के पक्ष में आ गयी।
केवल सेना ही नहीं स्वयं ध्रुवस्वामिनी ने आगे बढ़कर अपने देवर के माथे पर विजय तिलक लगाया।
सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के सिंहासनारूढ होने का वर्ष 378 ई०पू० कहा गया है। जो इस बात को साबित करता है कि अपने पिता समुद्रगुप्त के निधन के वर्ष ही वह सिंहासनासीन हो गया था। उसका बड़ा भाई रामगुप्त गिनती के कुछ दिनों अथवा महीनों तक ही उत्तराधिकार से प्राप्त शासन का शासक रहा था।
राजधानी लौटने पर उसका विरोध करने वाला कोई न था। वह राजगद्दी पर बैठ गया। उसने अपनी भाभी ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया था। ध्रुवदेवी चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्नी बनी।
ध्रुवदेवी या ध्रुवस्वामिनी की कथा प्राचीन कथा साहित्य में ही नहीं अपितु शिलालेखों में भी उपलब्ध है। प्रसिद्ध कवि विशाखदत्त ने इस कथा को लेकर ‘देवी चन्द्रगुप्त’ नाटक लिखा था।
यद्यपि मूल नाटक अब उपलब्ध नहीं है, परन्तु उसके उदाहरण को अन्य ग्रंथों में दिया गया है-वे उपलब्ध हैं। बाण के हर्षचरितम् में भी इस कथा की रूपरेखा का परिचय मिल जाता है। लिखा है
“दूसरे की पत्नी का कामुक शकपति कामिनी वेशधारी चन्द्रगुप्त द्वारा मारा गया।” राजा अनोधवर्धा के ताम्रपत्र में भी इस कथा को निर्देश किया गया है। अरबी, फारसी साहित्य में भी इस कथा को लेकर कथानक लिखा गया। बारहवीं सदी के अब्दुल हसन अली नामक एक लेखक ने इस कथा को ‘मजमतुल तवारीख’ नामक पुस्तक में लिखा।
शासन प्रबन्ध
राजगद्दी पर आसीन होने के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामने दो खास काम थे। पहला कार्य था-रामगुप्त के कुछ समय के सिंहासनारूढ़ होने के बीच जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी थी, उसको नियंत्रण में लेना। दूसरा कार्य था-अपनी राजशक्ति को सुदृढ़ करके साम्राज्य का विस्तार करना। पहले उद्देश्य के तहत उसने शकों के विरुद्ध सैनिक अभियान चलाकर उन्हें अपने साम्राज्य से खदेड़ कर न सिर्फ सीमा से बाहर किया, बल्कि उनके प्रभाव वाले इलाकों में उनका इस तरह दमन किया कि वे दोबारा सिर न उभार सकें।
अपने पहले कार्य के अन्तर्गत ही उसने साम्राज्य के अन्य अधीन राजाओं के विद्रोह को दृढ़ता के साथ कुचला। शासन प्रबन्ध मजबूत किया। प्रजा के सुख का ध्यान रखा तथा न्याय व्यवस्था प्रणाली को सुलभ बनाया। उसने अपने पिता के आर्यवर्त को मजबूती के साथ सम्भाल लिया। बहुत सारे स्वतंत्र हो जाने वाले गणराज्यों ने स्वयं ही आकर उसकी अधीनता स्वीकार कर आत्मसमर्पण कर दिया।
उत्तर-पश्चिम की स्वतंत्र राज्य-शक्तियां उसके आक्रमण से आशकित होकर उसकी मैत्री का दम भरने लगीं थीं; परन्तु पश्चिमी क्षेत्र उसकी राजसत्ता की मजबूती के बाद भी स्वयं को शक्तिमान मानते थे। ऐसे राजाओं में वाकाटक के राजाओं का मुख्य नाम था।
वाकाटक संधि
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों के विरुद्ध जो अभियान चलाया था, उससे वाकाटक राजा भी उसकी शक्ति से प्रभावित हुए बगैर न रहा। उन्होंने आगे बढ़कर उसे उसके पिता के वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा मैत्री की रस्म याद दिलायी। चन्द्रगुप्त स्वयं वैवाहिक मैत्री द्वारा अपने साम्राज्य को सुचारू रूप से चलाना चाहता था।
अतः जब वाकाटकों द्वारा उसके पास प्रस्ताव आया तो उसने सैन्य अभियान रोक दिया। उसने नाग राजकुमारी कुबेरनागा से उत्पन्न अपनी कन्या प्रभावती का विवाह रुद्रसेन द्वितीय वाकाटक के साथ कर दिया।
यह विवाह चन्द्रगुप्त द्वितीय की एक ऐसी दूरदर्शिता थी; जिसने शकों और वाकाटकों से सीमा सुरक्षा को मजबूत कर दिया।।
शकों को वाकाटकों के भाग से ही गुजरकर उसकी सीमा में आना पड़ता था-उस वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा वाकाटक राजा इस ओर से निश्चित हो गये कि चन्द्रगुप्त का आक्रमण उन पर होगा। वे निश्चित होकर अपने सेना की रक्षा करने लगे, जिसकी वजह से शकों को बढ़ने के लिए सीमा मिलनी बन्द हो गयी। रुद्रसेन द्वितीय के साथ प्रभावती के विवाह के कुछ समय बाद तीस वर्ष की आयु में रुद्रसेन द्वितीय का निधन हो गया। रुद्रसेन द्वितीय का पुत्र उस समय कम आयु का था। अपने पिता की शक्ति के सहारे प्रभावती को अपने हाथों में ले लिया तथा वह वाकाटक राज्य की स्वामिनी बन गयी।
इस स्थिति में उसने 390 ई० से 410 ई० के लगभग राज्य किया। उसे अपने प्रतापी पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय का पूरा सहयोग प्राप्त था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शकों के विरुद्ध पुनः विजय अभियान चलाने का विवरण सामने आता है। उसने महाक्षत्रय शक-स्वामी रुद्रसिंह पर आक्रमण किया था। उस समय वाकाटक राज्य की सम्पूर्ण शक्ति उसके हाथ में थी।
इससे इस निष्कर्ष पर सहजता से पहुंचा जा सकता है कि शक स्वामी रुद्रसिंह पर आक्रमण उस समय चन्द्रगुप्त द्वितीय ने किया जबकि वाकाटक राजा रुद्रसेन के निधन के बाद प्रभावती ने वाकाटक की सम्पूर्ण सत्ता अपने हाथ में ले ली थी। अवश्य ही एक नारी के हाथ में सत्ता को देख शक स्वामी रुद्रसिंह ने उस पर चढ़ाई की होगी-मुकाबले के लिए चन्द्रगुप्त द्वितीय शीघ्र वहां पहुंचा होगा तथा अपनी सेना के साथ वाकाटक की सेना लेकर शकराज का मुकाबला कर उसे हराया होगा। उसने गुजरात काठियावाड़ के शकों को खदेड़कर पूरी तरह से उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत कर लिया था। गुजरात काठियावाड़ को गुप्त साम्राज्य के अधीन करना चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। इस घटना के बाद ही उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की।
विस्तृत विजय
कठियावाड़ की विजय के कारण गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत हो गयी थी।
उपरोक्त प्रदेशों के जीतने के बाद पाटलिपुत्र को राजधानी बनाए रखा, काफी दूर का मामला हो गया था, अतः उसने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। उज्जयिनी को दूसरी राजधानी बना लेने के बाद उसने गांधार-कम्बोज के शक-मुरूण्डो (कुशाणों) पर भी आक्रमण कर उनका संहार किया।
दिल्ली के समीप महरौली में लोहे का एक विष्णु स्तम्भ है। उस स्तम्भ के लेख में ‘चन्द्र’ की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उसने सिन्धु के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैन्धव देश की सात नदियों) को पारकर बालीन (बलन) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की।
पंजाब की सात नदियों (यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, जेहलम और सिन्धु) का प्रदेश प्राचीन समय में सप्त सैन्धव कहलाता था। उसके उस पार के प्रदेश में उस समय शक मुरुण्डों या कुषाणों का राज्य विद्यमान था। शक मुरुण्डों के राज्य का दमन करने के बाद गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा, सुदूर वंक्षु नदी तक पहुंच गयी थी।
बंगाल विजय
बंगाल के स्तम्भ लेख में यह भी लिखा है कि प्रतिरोध करने के लिए एकत्र हुए अनेक राजाओं को भी चन्द्र ने परास्त किया। इस विवरण से अर्थ निकलता है कि चन्द्रगुप्त को शक-मुरुण्डों के विरुद्ध युद्ध में लिप्त देख बंगाल के कुछ पुराने राजकुलों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। वे एकत्र होकर चन्द्रगुप्त द्वितीय के विरुद्ध युद्ध भूमि में उतर आये थे-पर चन्द्रगुप्त ने युद्ध भूमि में पहुंचे उन पर विजय प्राप्त की।
चन्द्रगुप्त ने केवल विक्रमादित्य की ही उपाधि नहीं बल्कि ‘सिंह विक्रम’ ‘सिंह चन्द्र’, ‘साहसांक’, ‘विक्रमांक’, ‘देवराज’ आदि उपाधियों को धारण किया था।
उसके काल के अनेक प्रकार के सिक्के मिले हैं। एक सिक्के में उसे सिंह के साथ लड़ता हुआ प्रदर्शित किया गया है और साथ ही एक वाक्य दिया गया है जिसका अर्थ है-पृथ्वी पर विजय प्राप्त कर विक्रमादित्य अपने सुकार्य से स्वर्ग को जीत रहा है। अपने पिता के समान चन्द्रगुप्त ने भी अश्वमेध यज्ञ किया।
राज्य व्यवस्था
चन्द्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल में चीनी यात्री फाह्यान आया था। वह साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र रहकर तीन वर्ष तक संस्कृत सीखता रहा। उसने लिखा है-उस नगर में दो विशाल और सुन्दर विहार थे, जिनमें से एक हीनयान और दूसरा महायान का था। छः-सात सौ विद्वान भिक्षु उनमें निवास करते थे। इन भिक्षुओं की विद्वता इतनी असधारण थी कि देश के सुदूर प्रान्तों से धर्म और आचार के जिज्ञासु उनके पास ज्ञानार्थ उपस्थित होते थे।
फाह्यान ने जनता के विषय में लिखा है कि जनता साधारणतः शाकाहारी थी और अहिंसा के सिद्धांत का आचरण करती थी। उनके बाजारों में मांस में और मद्य की दूकानें नहीं थीं। फाह्यान भारत में बौद्ध धर्म में दिलचस्पी रखने के कारण बौद्ध हस्तलिपियों के संग्रह तथा बुद्ध से सम्बन्धित पवित्र तीर्थ स्थानों की यात्रा हेतु आया था। उसने बौद्ध धर्म तथा संघ से सम्बन्ध रखने वाले वृतान्तों का उल्लेख किया था। उसने बंगाल और बिहार को हरा-भरा क्षेत्र बताया है। मथुरा में उसने 20 बौद्ध बिहार देखे थे और लिखा था कि वहां बौद्ध धर्म का विस्तार हो रहा था। उसकी नजरों में मध्यदेश में बौद्ध धर्म उतना लोकप्रिय न था क्योंकि उसके प्रमुख नगरों में केवल एक-दो विहार ही देखे थे-कहीं-कहीं उनका पूर्णतः अभाव था; मध्यदेश में ब्राह्मण और बौद्ध मतावलम्बियों में परस्पर मेल था-उनमें कभी धार्मिक असहिष्णुता न दिखाई देती थी। अभिलेखों से भी यह बात सामने आती है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के उच्चस्थ राजकर्मचारी शैव और बौद्ध थे।
फाह्यान ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के साम्राज्य के शासन तथा मध्यदेश (पाटलिपुत्र) की जलवायु की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि-प्रजा समृद्ध थी और कर के प्रतिबन्धों से मुक्त थी। प्रजा के आवागमन में राजा किसी प्रकार का विरोध नहीं करते थे-यदि वे कहीं जाना चाहें तो जाते थे, यदि वे कहीं रुकना चाहते थे, तो रुकते थे।
दण्ड विधान के बारे में उसने लिखा है कि चीनी पद्धति के मुकाबले में विनम्र था। अपराधी अपने अपराधों के अनुपात से भारी तथा हल्के जुर्माने से दण्डित होते थे। अभियुक्तों को शारीरिक यंत्रणाएं नहीं दी जाती थीं, प्राण दण्ड सर्वथा बंद कर दिया गया था-देशद्रोह के अपराधी को केवल अंगच्छेद का दण्ड मिलता था।
राजकर्मचारी वैतनिक थे। साधारण और थोड़े मूल्य को चुकाने में कौड़ी का प्रयोग होता था; परन्तु ‘सुवर्ण’ और ‘दीनार’ नाम के सिक्के भी आमतौर पर प्रचलित थे।
शासन का निम्नतम आधार ग्राम था, जिसका मुखिया ग्रामिक कहलाता था। ग्रामवृद्धों से निर्मित पंच मंडली अथवा पंचायत की सहायता से ग्रामिक अपने इलाके (इलाका या क्षेत्र) में शान्ति और सुरक्षा का प्रबन्ध करता था। चन्द्रगुप्त द्वितीय की रानियों में कुबेरनागा का मुख्य नाम था-उसकी दूसरी रानी ध्रुवदेवी अथवा ध्रुवस्वामिनी थी। बाद में ध्रुवस्वामिनी का प्रभाव बढ़ गया था। उसके दो पुत्र थे-कुमारगुप्त प्रथम और गोविन्दगुप्त। गोविन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय का प्रतिनिधि शासक था। कुमारगुप्त उत्तराधिकारी घोषित था। चन्द्रगुप्त के बाद कुमारगुप्त प्रथम शासक बना। कुमारगुप्त का ही एक अन्य नाम देवराज था।