
सल्हर का खूनी युद्ध (Battle of Salher) (फरवरी 1672)
औरंगजेब को मुग़ल साम्राज्य का कट्टर बादशाह कहकर सम्बोधित किया गया है। यह शाहजहां का तृतीय पुत्र था। युवाकाल से ही सत्ता के लिए अत्यन्त महत्वाकांक्षी होने के कारण उसने शाहजहां के शासनकाल में ही मुग़ल साम्राज्य विस्तार के लिए युद्ध किए थे। वह विद्रोहों को दबाने में सिद्धहस्त माना गया। युद्ध कला में प्रवीण और कट्टरता और निर्दयता से शत्रु का वध करने के कारण शाहजहां विजय अभियानों में उसे ही भेजने में प्राथमिकता देता था। औरंगजेब को शाहजहां ने शुरूआती दौर में 10,000 जात और 4,000 घुड़सवार सेना का मनसब प्रदान किया था।
ओरछा के जूझरी सिंह से युद्ध करने का औरंगजेब को प्रथम अवसर मिला। उसने दो बार दकन (1636 से 1644 ई० तथा 1652 से 1658 ई० तक) की सूबेदारी की। दकन के अलावा गुजरात (1645 ई०) मुल्तान एवं सिंध (1640 ई०) का सूबेदार रहा।
सन् 1640 से सूबेदारी का आनन्द उठाते हुए औरंगजेब को सत्ता की भूख बुरी तरह सताने लगी थी। पर उसे मालूम था कि पिता के बाद सल्तनत दारा शिकोह को मिलेगी क्योंकि वह ज्येष्ठ पुत्र था। यदि दारा शिकोह जीवित नहीं रहता तो दूसरे पुत्र शाहशुजा को सत्ता मिलेगी। इस तरह उसे सत्ता मिलने का कोई रास्ता नजर न आ रहा था, बावजूद इसके उसने आगे 28 वर्षों तक इन्तजार करते हुए अपनी स्थिति मजबूत बनाने का कार्य किया।
शाहजहां बीमार पड़ा तो उसका अन्तिम समय जानकर दारा शिकोह पिता के समीप ही था, पर तीन पुत्र शाहशुजा, औरंगजेब और मुराद राजधानी के लिए अपने-अपने सूबे से चल दिए थे। औरंगजेब ने राजधानी पहुंचने से पूर्व ही ऐसी शतरंजी बिसात बिछाई कि चारों पुत्र उत्तराधिकार को लेकर युद्धरत हो गए।
12-14 अप्रैल, 1659 ई० को ‘देवराई की घाटी में’ दारा शिकोह से युद्ध कर उसे हराया तथा 30 अगस्त 1659 को उसका कत्ल कर गद्दी प्राप्त करने का रास्ता साफ किया। दारा शिकोह के कत्ल से पहले 1658 ई० में उसने अपने पिता शाहजहां को आगरा के किले में कैद कर दिया था। शाहजहां को आठ वर्ष उसने कैद रखा और मृत्यु के उपरान्त ही शाहजहां के शव को कैदखाने से बाहर निकाला-वह भी रात के अंधेरे में, हिजड़ों ने उसे ले जाकर ताजमहल में मुमताज महल के बगल में दफन कर दिया।
दारा शिकोह को कत्ल करने के बाद औरंगजेब ने शाहशुजा और मुराद को भी न छोड़ा था। न सिर्फ अपने तीनों भाईयों बल्कि उनके पुत्रों को भी कत्ल करा दिया ताकि गद्दी का कोई वारिस उसे भविष्य में सत्ता के लिए चुनौती न दे सके।
‘सल्हर के खूनी युद्ध‘ के सन्दर्भ में, युद्ध की भूमिका और युद्ध होने से पूर्व औरंगजेब के बारे में संक्षिप्त विवरण इसलिए लिख दिया गया ताकि पाठकों को इस बात की जानकारी हो जाए कि औरंगजेब कितना क्रूर, निर्दयी और कट्टर बादशाह था।
इस क्रूर मुग़ल बादशाह के मुकाबले में वीर शिवाजी जैसा योद्धा आरम्भ से ही खड़ा होकर चुनौती देता रहा था। शिवाजी के बारे में कहा जाए कि उन्होंने औरंगजेब को तमाम उम्र नाकों चने चबवाने की कहावत चरितार्थ की तो कोई अतिशयोक्ति न होगा।
शिवाजी बराबर महाराष्ट्र, गुजरात तथा दकन में उत्पात मचाते, मुग़ल सेना पर आक्रमण करते, लूटपाट करते और किले पर किले जीतते रहे।
औरंगजेब का विश्वस्त योद्धा और सेनापति जयसिंह की मृत्यु 1670 ई० में हो गयी। जयसिंह औरंगजेब और शिवाजी के बीच की मध्यस्थ कड़ी थे। उनके जीते-जीते किसी न किसी युक्ति से शिवाजी और औरंगजेब में सन्धि होती रहती थी।
पर जयसिंह के निधन के बाद औरंगजेब ने अचानक असहिष्णुता की नीति अपना ली। उसने 1669 ई० में सार्वजनिक आदेश जारी किया कि ‘काफिरों के सभी विद्यालय और मन्दिर गिरा दिए जाएं। उनके धार्मिक उपदेशों और प्रचलनों को दबा दिया जाए।
उपरोक्त आदेश के साथ ही मुग़ल साम्राज्य में हिन्दुओं पर अत्याचार की प्रतिध्वनि पूरे उप-महाद्वीप में व्याप्त हो गयी। बनारस के विश्लेवर मन्दिर को अपवित्रकरण ने शिवाजी का खून खौला दिया। बनारस के उक्त मन्दिर पर शिवाजी की प्रगाढ़ आस्था थी। उन्होंने औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं के साथ किए जाने वाले अत्याचार और अन्याय का प्रतिशोध चुकाने के लिए मुगलों के विरुद्ध हथियार उठा लिए। एक वर्ष में ही उन्होंने मुगलों के अधिकांश किले वापस जीत लिए। वे किले 1665 ई० में पुरन्दर सन्धि के तहत मुगलों को वापस कर चुके थे। फरवरी, 1670 ई० में शिवाजी के एक प्रतिभाशाली सहयोगी ताना जी मालसुरे ने अपने प्राण का बलिदान देकर, कोंडना को जीत लिया। शिवाजी ने इस किले को नया नाम दिया-सिंहगढ़! इसके बाद पुरन्दर पर हमला करके, वहां से मुग़ल सेना का कत्लेआम करके उसे मुक्त करा लिया।
दो वर्षों में ही शिवाजी ने न केवल अपने क्षेत्रों से मुगलों का सफाया कर दिया, बल्कि मुगलों के आधीन प्रान्तों में लूटमार करके तबाही फैलाने लगे। अहमदनगर, बरार, बगलान, खानदेश जैसे मुग़ल प्रान्तों पर दूर-दूर तक छापे मारे-घोड़े, विशाल मात्रा में युद्ध के हथियार, रसद, सोने-चांदी के रूप में विपुल धन प्राप्त किया।
शिवाजी ने मुग़ल क्षेत्रों पर ‘चौथ’ (अपना कर) लगाया और प्रत्येक अभियान के जन और धन में हुए व्यय की पूर्ति इस कर से की।
अक्टूबर 1670 में शिवाजी ने दूसरी बार सूरत को लूटा और 66 लाख रुपये की कीमत के लूटे सोने और चांदी के साथ वापस लौटे। दाउद खान कुरैशी के नेतृत्व में मुग़ल सेना ने उन्हें बीच में ही रोकने का प्रयास किया, किन्तु शिवाजी ने एक चालाकी पूर्ण युक्ति से उसे पछाड़ दिया।
खूनी युद्ध की शुरूआत
फरवरी, 1672 ई० में खानदेश और गुजरात की सीमा पर सल्हर नामक स्थान पर शिवाजी के पेशवा मोरो पित्रल पिंगल के नेतृत्व में मराठा सैनिक दकन के सूबेदार दिलेर खान, गुजरात के सूबेदार बहादुर खान के नेतृत्व में पहुंची विशाल मुग़ल सेना के सामने मैदान में डट गए।
मुग़ल सेना की विशाल सेना तथा दो-दो कमाण्डरों के नेतृत्व में युद्ध भूमि में उतरे मुग़ल सैनिकों पर मराठे वीर योद्धा भारी पड़ते गए। खूनी युद्ध लम्बा खिंचा। लाशों पर लाशें गिरती रहीं, पर मराठों पर पार पाना मुग़ल सेना के वश की बात न रही। अततः मुग़ल सेना को बुरी तरह हार कर मैदान से भागना पड़ा।
इस ऐतिहासिक युद्ध में दोनों पक्षों के अनगिनत घोड़े, हाथी, ऊंट समेत 10,000 लोग मारे गए। युद्ध भूमि में खून की नदियां बह गयीं। हार कर भागी हुई मुग़ल सेना से लूट के रूप में छः हजार घोड़े, उतने ही ऊंट, 125 हाथी, शिविर में पड़े खजाने एवं हीरे-जवाहरात समेत, मुगलों के सारे साजो-सामान मराठों के हाथ लगे।
इस खूनी युद्ध का विवरण इतिहासकार जी०एस० देसाई ने इस प्रकार किया है-“सल्हर की लड़ाई सर्वोत्तम सुसज्जित एवं सर्वाधिक योग्य नेतृत्व वाली, मुग़ल सेनाओं के विरोध में शिवाजी के सैनिकों की खुली कार्रवाई थी और किसी भी तरह इसमें गोरिल्ला युद्ध की प्रवृत्ति का लोशमात्र भी न था।
मराठा सरदार और मवाल सैनिक सर्वाधिक प्रसिद्ध मुग़ल कमाण्डरों पर भारी पड़े। इस समाचार ने शिवाजी का हृदय खुशियों से भर दिया। जिन संदेशवाहकों ने यह समाचार पहुंचाया उन्हें उन्होंने सोने के कंगन और पहुंचियां (Wristlets) इनाम दिए। सबों के बीच मिठाइयां बांटी गईं। दिलेर खान ने भागकर अपनी जान बचाई।
भारी संख्या में मुग़ल आहत और बंदी होकर शिवाजी के हाथों लगे। उनकी उचित सेवा-सुश्रुषा की गई और उनके जख्म ठीक हो जाने पर उपहारों के साथ उन्हें मुक्त कर दिया गया। कुछ तो स्वेच्छा से शिवाजी की सेवा में जुट गए। इस प्रकार कुछ ही वर्षों में शिवाजी ने न केवल अपनी पूर्व हैसियत प्राप्त कर ली अपितु साम्राज्य के सर्वोत्तम जनरलों और प्रशासकों के मुकाबले आ गए। उनके अधिकारी और अनुयायी इतने सुप्रशिक्षित थे कि वे किसी भी कठिन स्थिति में कौशल और पहल प्रदर्शित कर सकते थे।
कोई जोशीला नेता किस तरह समूचे राष्ट्र के चरित्र को बदल सकता है और तेजी से उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है, वह शिवाजी के सैनिक संगठन से सुस्पष्ट होता है।” सल्हर का यह खूनी युद्ध, युद्ध में हुए भीषण नुकसान और पराजय ने औरंगजेब के सारे हौसले को तोड़ कर रख दिया था।