
भगवान श्री कृष्ण की कहानियां | Amazing Lord Krishna mahabharat Stories in Hindi-भगवद्गीता
कुरुक्षेत्र में युद्ध के दौरान अर्जुन ने कौरवों के खिलाफ हथियार उठाने से इनकार कर दिया। अर्जुन जानते थे कि वे एक कुशल योद्धा हैं, लेकिन वे अपने प्रियजनों के साथ युद्ध नहीं करना चाहते थे। अर्जुन सोच रहे थे कि वे उन लोगों से कैसे युद्ध करें, जिनके साथ पलकर बड़े हुए हैं, जिन्हें वे अपना गुरु मानते हैं और जिनसे उन्होंने बहुत कुछ सीखा है। उनका इशारा भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य की ओर था।
ऐसी स्थिति में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा, “इस युद्ध में दोनों तरफ के बहुत से लोग मारे जाएंगे। मैं भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के प्रति तुम्हारे प्रेम को समझ सकता हूं। वे बहुत नेक और दयालु हैं, किंतु उन्होंने पांडवों के साथ हो रहे अन्याय का विरोध न करते हुए अधर्म का पक्ष लिया है, अतः तुम उनका मोह छोड़ दो। युद्ध में किसी के साथ कोई संबंध नहीं होता। सभी संबंध युद्ध से पहले थे।” ।
भगवान कृष्ण अर्जुन के केवल सारथी ही नहीं, उनके सखा भी थे। उन्होंने अपने शब्दों द्वारा अर्जुन के मन में बल और साहस का संचार किया, जब वे युद्ध से पूरी तरह विमुख हो गए थे। अर्जुन गंभीर स्वर में बोले, “प्रभु! आप नहीं जानते कि मैं इन सबसे कितना स्नेह रखता हूं। ये सब मेरे अपने हैं, मेरे गुरुजन हैं। मैं इन पर अपने शस्त्र भला कैसे चला सकता हूं।”
तब भगवान कृष्ण ने अर्जुन को नाना प्रकार के उपदेश देकर समझाया कि वह धर्मयुद्ध में अपना सहयोग दे रहा था और संसार में जो कुछ भी घटित होता है, वह ईश्वर की इच्छा से ही होता है।
जब अर्जुन बहुत निराश हो गए, तो भगवान कृष्ण ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए अपने दिव्य स्वरूप के दर्शन करवाए। भगवान कृष्ण बोले, “अर्जुन, किसी से भी मोह, आध्यात्मिक पथ की बाधा बन सकता है। मेरे माता-पिता, पालक माता-पिता, भाई और जीवन साथी के प्रति मेरा अलगाव इस जीवन-दर्शन को समझाता है। मैं न तो किसी का दुश्मन हूं और न ही किसी का दोस्त हूं।” उन्होंने अर्जुन को प्रेरित किया कि वे अपने परिवार के सदस्यों की परवाह न करते हुए युद्ध करें और सोचें कि वह युद्ध, धर्म की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है। उन्होंने मोक्ष की ओर जाने वाले तीन मार्गों-ज्ञान, कर्म और भक्ति के बारे में बताया तथा अर्जुन को कर्म और धर्म का महत्व समझाया।
भगवान कृष्ण ने धनुर्धर अर्जुन को जो उपदेश दिए, वे महाभारत में ‘भगवद्गीता’ के नाम से जाने गए। समर्पण । तथा श्रद्धा ही भगवद्गीता का मूल स्वर है। इस महान और पवित्र ग्रंथ में एक स्वस्थ शरीर के लिए जरूरी आदतों, समर्पण, श्रद्धा, कर्तव्य तथा फल की इच्छा किए बिना कर्म करने के बारे में भी बताया गया है। ये सभी दुख तथा मोह से ऊपर Q उठने के मुख्य सूत्र हैं।
अर्जुन भगवान कृष्ण का विराट रूप देखकर भयभीत और चकित हो गए। जिन्हें वे अपने रथ का सारथी और मित्र मानते थे, वे तो पूरे संसार के कर्ता निकले। अर्जुन ने भक्तिभाव से आंखें मूंदकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी इच्छा के आगे आत्मसमर्पण कर दिया।
इधर नेत्रहीन राजा धृतराष्ट्र जानना चाहते थे कि युद्ध में क्या हो रहा था। संजय उनका सलाहकार और सारथी था। मुनि व्यास के वरदान से वह दूर से भी सारी घटनाओं को देख सकता था। वह धृतराष्ट्र को युद्ध भूमि में होने वाली सारी घटनाओं का आंखों-देखा हाल सुनाता था। संजय ही वह पहला व्यक्ति था, जिसने भगवान कृष्ण के बाद अपने मुख से भगवद्गीता का पाठ किया। भगवद्गीता अर्जुन तथा भगवान कृष्ण के बीच का संवाद है। इसे संजय ने धृतराष्ट्र के सामने दोहराया।
एक दिन संजय ने राजा धृतराष्ट्र से कहा, “आपको आशा है कि इस युद्ध में कौरव विजयी होंगे, क्योंकि भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य जैसे महारथी उनके साथ हैं। लेकिन मैं समझता हूं कि विजय उस पक्ष की होगी, जिसकी ओर भगवान कृष्ण हैं।” पांडवों की जीत तो निश्चित थी, क्योंकि भगवान कृष्ण अर्जुन के सारथी के रूप में उनके साथ थे। संजय की बात सुनकर धृतराष्ट्र कुछ नहीं बोले। वे जानते थे कि उनके पुत्र अधर्म का साथ दे रहे थे और जीत सदा धर्म की होती है। परंतु वे अपने पुत्रों के मोह में अंधे थे। उन्हें अब भी आशा थी कि शायद उनके पुत्र कौरवों की जीत हो जाए। आने वाले समय में क्या लिखा था, वे चाहकर भी उसे देखना नहीं चाहते थे।
संपूर्ण कृष्ण लीला- युद्ध जारी रहा
कर्ण को अपने जन्म के समय अपने पिता सूर्यदेव द्वारा अपनी रक्षा के लिए कवच और कुंडल प्रदान किए गए थे। कवच को छाती पर पहन लेने से कोई भी तीर कर्ण को घायल नहीं कर सकता था। कानों के कुंडल भी उसकी हर प्रकार के हमले से रक्षा करते थे। इन दोनों चीजों के कारण कर्ण को मारना नामुमकिन था। देवताओं के प्रमुख और अर्जुन के पिता इंद्र जानते थे कि जब तक कर्ण के पास यह दोनों चीजें हैं, तब तक अर्जुन को खतरा है। अतः इंद्र ने कर्ण से दोनों चीजें हथियाने की योजना बनाई।
अगले दिन इंद्रदेव ने साधु का वेश बनाया और कर्ण के पास गए, जब वह प्रार्थना करने में मग्न था। सूर्यदेव ने कर्ण को इंद्र की चाल के बारे में पहले ही बता दिया था और उसे सावधान रहने को कहा था। लेकिन कर्ण का कहना था कि वह अपने द्वार से किसी भी व्यक्ति को खाली हाथ वापस नहीं भेज सकता। उसने अपने सीने से वह कवच और कानों से कुंडल उतारकर इंद्रदेव को दे दिए। इंद्रदेव को यह सब करते हुए शर्म महसूस हो रही थी। अतः कर्ण से प्रभावित होकर उन्होंने उसे एक दिव्यास्त्र प्रदान किया।
कुंती कर्ण से मिलने गईं, ताकि वे सच्चाई के बारे में उसे बता सकें। लेकिन सब | कुछ सुनने के बाद भी कर्ण ने पांडवों का साथ देने से मना कर दिया। वह बोला, “मैं इस बारे में पहले ही भगवान कृष्ण को मना कर चुका हूं, अतः अब बहुत देर हो चुकी है। दुर्योधन मेरा बहुत प्रिय मित्र है। लेकिन मैं आपसे वादा करता हूं कि अर्जुन के अलावा किसी भी पांडव को नहीं मारूंगा।” युद्ध के दसवें दिन तक पांडव भीष्म पितामह को नहीं हरा पाए। तब भगवान कृष्ण ने पांडवों से कहा, “भीष्म किसी महिला पर वार नहीं करते, लेकिन युद्ध भूमि में किसी महिला का आना मना है।”
तत्पश्चात भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वे शिखंडी को अपना सारथी बना लें। शिखंडी एक औरत के रूप में पैदा हुआ था, लेकिन वह बाद में अंशावतार के रूप में आ गया था। शिखंडी द्वारा अर्जुन का सारथी बनने पर भीष्म पितामह ने अर्जुन की ओर प्रहार नहीं किया। लेकिन अर्जुन ने भीष्म पितामह पर लगातार लगभग सौ तीर चलाए और उन्हें घायल करके जमीन पर गिरा दिया। भीष्म पितामह को मारा नहीं जा सकता था, क्योंकि उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था।
भीष्म पितामह के घायल होने के बाद द्रोणाचार्य को कौरवों की सेना का सेनापति बनाया गया। उन्होंने युद्ध में चक्रव्यूह की रचना की और जयद्रथ को इसका प्रमुख बनाया। अर्जुन चक्रव्यूह को तोड़ना जानते थे। लेकिन द्रोणाचार्य ने उस समय चक्रव्यूह जारी किया, जब अर्जुन आसपास नहीं थे। वह चक्रव्यूह पांडवों की ओर बढ़ने लगा और रास्ते में आने वाले हर दुश्मन का सफाया करने लगा। ऐसे में अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु आगे आया। वह चक्रव्यूह में घुसना तो जानता था, किंतु उससे बाहर निकलना नहीं जानता था। अतः दुर्योधन, कर्ण, द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा ने मिलकर अभिमन्यु को मार डाला। जब अर्जुन को अपने पुत्र अभिमन्यु की मौत का समाचार मिला, तो उन्होंने अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा कर ली। अगले दिन वे चक्रव्यूह में घुस गए, लेकिन सूर्यास्त तक जयद्रथ के पास नहीं पहुंच सके।
ऐसी स्थिति में भगवान कृष्ण ने अपना चमत्कार दिखाया, जिसके कारण सूर्य फिर से निकल आया। कौरवों ने सूर्यास्त होते ही युद्ध रोक दिया था। लेकिन सूर्य निकलते ही युद्ध पुनः शुरू हो गया। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा, “अर्जुन, मौके का फायदा उठाओ।” जैसे ही अर्जुन ने जयद्रथ का सिर काटा, वैसे ही भगवान कृष्ण ने अपना चमत्कार बंद कर दिया और सूर्य अस्त हो गया।
भगवान कृष्ण ने द्रोणाचार्य को मारने के लिए भी युक्ति का सहारा लिया। द्रोणाचार्य ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जब तक उनका पुत्र अश्वत्थामा नहीं मरेगा, तब तक वे युद्ध करते रहेंगे। अगले दिन भगवान कृष्ण द्वारा बताई गई युक्ति के अनुसार भीम ने काम किया।
महाभारत के इस युद्ध में अश्वत्थामा नामक एक हाथी भी था। भीम ने उस हाथी का वध कर दिया। चारों ओर यह समाचार प्रसारित कर दिया गया कि अश्वत्थामा मारा गया। लोगों की समझ में नहीं आया कि अश्वत्थामा नामक हाथी के बारे में बात हो रही थी या वास्तव में द्रोणाचार्य का पुत्र अश्वत्थामा मारा गया था। फिर देखते ही देखते युद्ध भूमि में चारों ओर भारी शोर मच गया। इसके बाद यह समाचार द्रोणाचार्य तक पहुंचाने की जिम्मेदारी धर्मराज युधिष्ठिर को सौंपी गई।
युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य को संदेश दिया कि अश्वत्थामा मारा गया। द्रोणाचार्य ने सोचा कि उनका बेटा अश्वत्थामा मारा गया। ऐसे में उन्होंने उसी समय हथियार डाल दिए। उनके ऐसा करते ही द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। दूसरी ओर भीम ने दुशासन को मार डाला, जिसने द्रौपदी का अपमान किया था। इसके बाद कर्ण को कौरवों की सेना का नया सेनापति बनाया गया।
भगवान कृष्ण ने भीम से कहा कि वह अपने पुत्र घटोत्कच, जो आधा दानव था, को कर्ण से लड़ने के लिए युद्ध भूमि में भेजे। भगवान कृष्ण की बात मानते हुए भीम ने तत्काल घटोत्कच को युद्ध भूमि में भेज दिया। घटोत्कच ने कौरवों की सेना में हाहाकार मचा दिया। ऐसा लगता था, मानो वह अकेला ही कौरवों की सारी सेना का अंत कर देगा।
दुर्योधन ने निराश स्वर में कर्ण से कहा कि वह घटोत्कच को रोके। घटोत्कच को रोकने के लिए कर्ण को इंद्र द्वारा दिए गए दिव्यास्त्र का इस्तेमाल करना था। अतः उसने घटोत्कच को मार डाला। यह देखकर भीम ने गुस्से से कहा, “हे कृष्ण, मेरा पुत्र मारा गया और तुम हंस रहे । हो।” भगवान कृष्ण ने कहा, “जब से युद्ध शुरू हुआ है, मैं पहले ही दिन से अर्जुन को कर्ण के सामने नहीं जाने दे रहा था। मैं इसलिए हंस रहा हूं कि अब अर्जुन को युद्ध भूमि में कोई खतरा नहीं है, क्योंकि कर्ण अपने दिव्यास्त्र का प्रयोग कर चुका है।”
इधर कर्ण स्वयं अर्जुन के सामने आया और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। शीघ्र ही कर्ण का सारथी मारा गया और उसके रथ का एक पहिया टूट गया। कर्ण ने अर्जुन से प्रार्थना की, “हे अर्जुन, रुक जाओ। मुझे अपना रथ ठीक करने दो। मैं इस समय बिना हथियार के हूं। हथियार रहित व्यक्ति पर वार करना युद्ध के नियमों के खिलाफ है।”
भगवान कृष्ण ने कहा, “कर्ण! इस युद्ध में सब कुछ बिना नीति और नियमों के ही हो रहा है। यह अर्जुन की मूर्खता ही होगी कि वह इतना अच्छा अवसर हाथ से जाने दे और तुम्हें जीवित छोड़ दे।” तभी अर्जुन ने तीर द्वारा निशाना लगाकर कर्ण का वध कर दिया। कौरवों के सेनापति कर्ण के मरते ही कौरवों की सेना भाग खड़ी हुई। कर्ण की मृत्यु के बाद दुर्योधन भी युद्ध भूमि से गायब हो गया।
जब कौरवों की सेना का सेनापति ही नहीं रहा, . तो उन सैनिकों ने सोचा कि अब उन्हें युद्ध में निर्देश कौन देगा। इसलिए उन्होंने पांडवों की सेना के आगे हथियार डाल दिए। वे नहीं जानते थे कि पांडव उनके साथ क्या करेंगे। लेकिन उस समय यही उचित था कि वे अपनी ओर से युद्ध करना बंद कर देते।
Krishna stories in hindi0-युद्ध का अंत
दुर्योधन युद्ध भूमि से भागकर एक पुराने तालाब में छिप गया था। मगर भीम ने उसे ढूंढ निकाला और अपनी गदा से उस पर भीषण प्रहार करने लगा। दुर्योधन का अभी तक भीम से आमने-सामने का युद्ध नहीं हुआ था। उनमें भयंकर युद्ध होता रहा, जो कई घंटों तक चला। दुर्योधन के मूत्रमार्ग के अलावा उसका पूरा शरीर उसकी मां गांधारी द्वारा दिए गए आशीर्वाद के फलस्वरूप सुरक्षित था। इसीलिए उस पर किसी भी प्रकार के शस्त्र प्रहार का कोई असर नहीं होता था। ऐसी विकट स्थिति में भगवान कृष्ण ने भीम को दुर्योधन की जांघ पर भीषण प्रहार करने का इशारा किया, जबकि ऐसा करना युद्ध के नियमों के विरुद्ध था।
भीम ने भगवान कृष्ण का इशारा समझ लिया। उसने उसी स्थान पर वार किया, जहां उन्होंने इशारा किया था। फिर देखते ही देखते दुर्योधन निर्जीव होकर जमीन पर गिर पड़ा। इस प्रकार जुए के दौरान भीम द्वारा की गई प्रतिज्ञा भी पूरी हुई। उसने दुर्योधन की जंघा तोड़ डाली थी।
इधर अश्वत्थामा पांडवों से अपने पिता की मौत का बदला लेना चाहता था। वह रात के समय चुपके से पांडवों के खेमे में गया और गलती से द्रौपदी के पांचों पुत्रों को पांच पांडव समझकर मार डाला। जब पांडव वहां आए, तो यह मर्मांतक दृश्य देखकर दुखी हो गए। अब हस्तिनापुर पर राज करने वाला कोई वारिस नहीं बचा था, केवल अभिमन्यु के अजन्मे शिशु को छोड़कर। उन्होंने जिस राजपाट के लिए इतना बड़ा युद्ध किया, उसके अंत में कुछ भी हाथ नहीं आया। अब सबकी समझ में आ गया था कि युद्ध चाहे कोई भी हो, अंत में विनाश के सिवा कुछ भी हाथ नहीं आता। ऐसी करुण स्थिति में सभी लोग दुखी हो गए।
इस प्रकार महाभारत जैसे एक विशाल युद्ध का अंत हुआ। युद्ध का मैदान रक्त और लाशों से भर गया था। धृतराष्ट्र और गांधारी के सभी सौ पुत्र इस युद्ध में मारे गए। जब भगवान कृष्ण उन्हें अपनी सहानुभूति देने गए, तो गांधारी ने उन्हें गुस्से से डांट दिया। वे बोली, “हे कृष्ण! मैं रोजाना तुम्हारी पूजा करती थी और यह सोचती थी कि तुम मेरे परिवार की रक्षा करोगे। तुम चाहते, तो इस विनाश को रोक सकते थे। मेरे सारे पुत्र मारे जा चुके हैं। कौरवों का अंत केवल आपस में लड़ने के कारण हुआ है। इसी प्रकार छत्तीस वर्ष बाद तुम यादवों की पीढ़ी का अंत भी आपस में लड़ते हुए होगा। यह मेरा अटल शाप है।”
लेकिन जब गांधारी का गुस्सा शांत हो गया, तो वे भगवान कृष्ण के पैरों में गिर पड़ी और उनसे क्षमा मांगने लगीं। भगवान कृष्ण ने हंसते हुए उनके द्वारा दिए शाप को स्वीकार किया। भगवान कृष्ण यह सोचते हुए आगे बढ़ गए कि यह तो विधि के विधान में ही निहित था।